गुरुवार, 26 मार्च 2015

"आवरण" - (लघु कथा)

"आवरण"

मैं अभी एक खाली ऑटो में बैठा ही था। ऑटो वाला बाकी सवारियों का इन्तजार कर रहा था। टाइम पास के लिए मैंने दोस्त को फोन लगाया। उधर से उसकी आवाज़ आयी,
“हाँ बोल, कैसा है? ”

“ठीक हूँ, तू बता? क्म्पनी स्विच मार ली और बताया तक भी नहीं?”

“वो तो चलता ही रहता है यार।  जब तक पैसे निकाल सको इन कम्पनियों से, निकाल लो। बाद में ये बिलकुल भी नहीं पूछने वाले तुमको। और अभी भी तो ये चूस ही रहे हैं हमको। तो हम भी क्यों न अपोर्चुनिस्ट बनें?”


“सही कहा। ”


“तुम्हें पता है? कंपनी के साथ साथ आई-फ़ोन भी चेंज केर लिया है। बोर हो गया था पुराने वाले से। ”

“यार तू इतना महँगा-महँगा फोन साल-दो-साल में चेंज करेगा?”

“स्टेटस सिम्बल है भाई। स्टेटस सिम्बल!”

“अच्छा रहने दो ! अभी बता क्या कर रहा है?”

“मॉल में हूँ, पी.वी.आर से निकल रहा हूँ। इतने पैसे बेकार गए, मूवी बकवास निकली। ट्रेलर देखने से तो अच्छा लग रहा था पर मूवी एकदम बकवास। सिर्फ प्रोमोशन पर चल रही फिल्म।
.... और तुम कहाँ हो इस समय?”

“ऑटो रिक्शा में बैठा हूँ, भरे तब तो चले, चल ही नहीं रहा ये। ”

“इस शहर का ट्रांसपोर्ट भी तो बहुत स्लो है।“

“न न न। तुम नए हो। मैं जब यहाँ आया था तो मुझे भी ऐसा लगा था। लेकिन इधर कुछ सालों में चेंज आया है। न्यू टाउन की ओर तक पूरा शहर चमचमा रहा है। भीड़ तो है कोलकाता में, पर साधन इतने हैं कि गिनते रह जाओगे। ट्राम है, बस है, लोकल ट्रेन है, मेट्रो ट्रेन है, ऑटो है, टैक्सी है, कालिंग कैब फैसिलिटी है। पानी के रस्ते जाना है तो फेरी है और वो भी बिलकुल सस्ता। आस-पास जाना हो तो मैंनुअल रिक्शा तो है ही; हाथ वाला भी और पैडल वाला भी। सभी क्लास के लोगों के लिए कुछ न कुछ है; अपने हिसाब से चुन लो। अमीर से अमीर और गरीब से गरीब; सबके लिए।”

“हाँ हाँ .. ठीक है ! फिर भी दिल्ली और मुंबई की बात ही अलग। खैर चलो, बाद में बात करते हैं। फ़ूड कोर्ट में हूँ कुछ आर्डर कर लूँ , नहीं तो तेरी भाभी गुस्सा हो जाएगी”

“ओके ओके ।”
फोन पर बात करते हुए ही मैंने एक औरत को देखा था। वह बिलकुल ही गन्दे कपड़ों में थी। गोद में उसका बच्चा भी था। वह ऑटो में बैठने लगी थी। एक हाथ से फोन थामे मैंने किसी तरह दूसरे हाथ से जेब की रुमाल निकाल कर नाक पर रखा और उसकी गंदगी से बचने के लिए किनारे की ओर थोड़ा सिकुड़कर बदस्तूर बातें करता रहा था।
फोन जेब में रखते ही उसकी ओर ध्यान गया। वह ऑटो में बैठने के बदले अब भी बाहर खड़ी थी। देखने से ही लग रहा था कि वह भीख मांग कर अपना गुजारा करती होगी। बाल उसके ऐसे जमे हुए थे कि जैसे महीनों से न धोये गए हों। माथे पर एक घाव जो कि उसके चेहरे की बदसूरती को और भी बढ़ा रहा था। नाक में ताम्बे के तार की नथुनी जो कि गन्दगी ज़मने से काली और भद्दी  दिख रही थी। साड़ी के पल्लू में बाँधा हुआ शायद कुछ खाने का सामान। एक हाथ में त्रिशूल का गोधना और एक हाथ में गुदा हुआ उसका नाम "जसोधा रानी"।
उसकी गोद में उसका छोटा बच्चा था। उसके सिर और पैर पर घाव थे। तन पर कपडे के नाम पर एक गन्दा और गीला सा रुमाल, बहती हुई नाक और उस पर जमी हुई गन्दगी। उसके चेहरे पर शून्य से भाव थे जैसे बचपन हो ही न उसमे, रोना और हँसना जैसे जानता ही न हो। वह अपने माँ की साड़ी चबा रहा था। फोन पर बातें करते हुए मुझे बराबर इस बात से झुंझलाहट होती रही थी कि इससे मुझे ही कहीं कोई बीमारी न फ़ैल जाये। मन में ऑटो से उतर जाने का ख़याल भी आया था। अब जब उन्हें गौर से देख रहा था तो दिल उदास होता चला गया। खूब बादल घिर आये थे। भारी बारिस के आसार थे। ऐसे मौसम में उसकी गोद में बड़ी-बड़ी अबोध आँखों से इस दुनिया की हर चीज़ को निहारता यह बच्चा। क्या इस दुनिया में कोई और भी है इनका? अगर होता तो ऐसे खराब मौसम में यूं अकेले क्यों निकल पड़े हैं ये? कुछ देर के लिए दिल में बड़े अजीब भाव आने लगे। हॉस्टल के जमाने में अपने कमरे की दीवार पर चिपका वह पोस्टर घूम गया जिस पर विवेकानंद की तस्वीर थी और जिसे इन वर्षों में मैं भूल चूका था। उसके नीचे लिखा था, ईश्वर कहीं है तो वो हमारे अन्दर ही है। हम सब के अन्दर है।“

“वह इस औरत के अन्दर भी है।” मैंने सोचा, “इस औरत के आवरण के कारण उसकी बेइजती करना मानवता की बेइजती है।”
एक तरफ उस औरत और बच्चे को देख कर अन्दर कहीं घिन्न उमड़ आने का सा भाव भी आ रहा था, और दूसरी और दया का एक भाव भी। फिर अपने जिन्दगी की जद्दोजेहद में अकेले जूझ रही इस औरत के लिए कहीं आदर का भाव भी आया । ये विचार मन में आ ही रहे थे कि अचानक ऑटो वाले ने उसे हड़काना शुरू कर दिया।
"ए ए. पिछुने, पिछुने .. एई ऑटो जाबे ना ... पिछोने जा"  ( ऐ... ऐ... पीछे, पीछे। ये ऑटो नहीं जाएगी। पीछे जाओ।)

पता नहीं कि वो औरत गूँगी थी या नहीं, पर कुछ बोल नहीं रही थी, बस इशारों में ही अपने हाथ में रखे नोट को दिखा रही। शायद बताना चाह रही थी कि, उसके पास ऑटो का किराया है। फिर कभी वह हाथ भी जोड़ रही थी कि उसे ले चले। उस समय उसके चेहरे पर ऐसी गिड़गिड़ाहट के भाव आ रहे थे, मानो उसका जाना बहुत जरूरी था।  फिर भी ऑटो वाला उसे वैसे ही दुत्कारे जा रहा था।
"बोललाम न , एटा जाबे न ... पिछोने जा" (बोला न, ये ऑटो नहीं जाएगी, पीछे जाओ।)

ऑटो वाला अपने से पीछे वाले ऑटो की तरफ इशारा करने लगा और कुछ बुदबुदाया।  मुझे समझ तो आ गया था कि उस औरत को उसने ऑटो किराया देने के बावजूद भी क्यों नहीं बैठाया, फिर भी मैंने उससे कहा,  "यार ! बैठा ही लिया होता।"
उसने गुस्से से पीछे घूमते हुए जवाब दिया, "आप उसके बगल में बैठ पाएंगे ? उतरेंगे तो नहीं? सब पैसेंजर भाग जायेंगे।“

बारिश धीरे-धीरे तेज होने लगी थी। अचानक देखा कि एक तरफ से काफी  लोग दौड़ते हुए आ रहे थे। शायद किसी बस से उतरे होंगे। ऑटो को सवारी मिल गयी और वो औरत पीछे वाले ऑटो के पास खड़ी थी। उस ऑटो वाले ने भी उसके साथ वही किया। उसने भी अपने से पीछे वाले ऑटो की तरफ इशारा करते हुए बाकी सवारी को बैठा लिया। अब वह औरत तीसरे ऑटो वाले को अपने हाथ में रखा नोट दिखाती दिखी। मेरी ऑटो चल पड़ी  थी, और मैंने आख़िरी बार देखा कि, वह औरत ऑटो वालों को छोड़कर गोद में बच्चे को लिए तेज बारिश के बीच निर्जन हो चुके फूटपाथ पर चुपचाप खड़ी थी। बगल से गुजरती, बारिश में  चमचमाती उस एस.यू.वी. कार पर कटाक्ष कर रही थी वो कुरूपा। मानवता के ऊपर भी एक भद्दा सवाल उठा रही थी मातृरूपा। – प्रकाश 'पंकज'

(फोटो: सभार गूगल इमेजेज )

सोमवार, 19 अगस्त 2013

पतित-पावन पतरातू - (लघु कथा)

पतित-पावन पतरातू

हर एक वो जगह जहाँ ट्रेन रुकती है, स्टेशन नहीं होता।

उस औरत को यह मालूम न था।

ट्रेन रूकती नहीं कि पूछ पड़ती -

“कौना टेशन है बबुआ?”



हर एक वो ट्रेन जो चलती है, पतरातू नहीं जाती।

उस औरत को तो यह भी न था पता।

जो भी जिस ट्रेन में कहता चढ जाती और कहती -

“पतरातू आते बतला दीहऽ बबुआ”



कुल मिलाकर वो उसकी तीसरी ट्रेन थी और वो भी पतरातू नहीं जा रही थी। लोगों से सलाह मिली धनबाद में उतर कर दूसरी ट्रेन लेने की, पर उसे कितना समझ आया वो वह ही जानती थी। वह बार-बार बंद दरवाजों और खिड़कियों को खोल बाहर झाँकना चाहती, जैसे अपनी धरती, अपने खेत, अपना घर आते हीं पहचान लेगी। पर उसे गेट और खिड़कियाँ खोलना भी नहीं आता था। बार-बार असफल प्रयास किया उसने गेट को खोलने का, फिर थक कर बैठ गयी।



उस औरत का स्लीपर से सरोकार क्या?

टिकट और जुर्माने से सरोकार क्या?

काले कोट और खाकी वर्दी वालों से सरोकार क्या?

नए रेल बजट से सरोकार क्या?



वो डब्बा स्लीपर वाला था, टिकट थी उसके पास जेनरल की और वो भी पिछले दिन की (वह पिछले दिन से सफर कर रही थी)।  कभी काले-कोट वाले फटकार कर चले जाते, कभी खाकी वर्दी, तो कभी कोई अन्य यात्री। सभी एक ही भाषा में बात करते -

“हुह!... उहाँ जाकर बईठो” ,

“होने जाओ, होने” ,

“जेनरल में जाकर बईठो”



किसी वेटिंग वाले ने संवेदना से कह दिया -

“गेटेर पाशे बोशे जान ... गेट के पास बैठ जाईए”

तो चढ़ने-उतरने वाले डाँटने लगे कि

“गेट तो छोड़ के बैठो”

 

आखिर में वो अपनी गठरी लेकर शौचालय के बाद डिब्बों के जुड़ाव वाली जगह पर बैठ गयी जहाँ गंध तो आ रही थी पर अभद्र फटकारों से अच्छी थी। जुड़ाव वाला स्थान जहाँ वो बैठी थी लहरों सा ऊपर नीचे हो रहा था। वो बगल के फाँकों से नीचे पटरियों के बीच झाँकने लगी और मुस्कुराते हुए उसी में मग्न हो गयी। उसे देख ऐसा लग रहा था कि मनो वो किसी ट्रेन में नही बल्कि एक नाव में बैठी है। नाव लहरों पर ऊपर नीचे हो रही है और वह औरत नीचे नदी की उलटी धार को चीरती हुई उसकी नाव को देख आनंदित हो रही है। उसे अपने खेवैये पति पर भी खूब भरोसा है कि वो उसे पतरातू तक जरूर ले जा पायेगा सुरक्षित। बैठे-बैठे उसकी आंखें लग गयी। फिर थोड़ी देर बाद वह वहीँ लेट गयी।



शाम से रात हो चुकी थी।



कुछ देर बाद एक भूंजा वाला पिछले डब्बे से आया और उसकी गठरी पर पैर रख दिया। अचानक उसका ध्यान टूटा और उसके मुँह से फूट पड़ा -

“अभगला, ई मोटरी में कशी बाबा के परसाद हथीन, करम फूट गेल हउ का तोहर? जो.. जो.. जो..”

भूंजा वाला कुछ बुदबुदाता चला गया।

 उस रस्ते अब कुछ और भी लोग आने लगे थे। कभी अंडा वाला, कभी पानी वाला, कभी गुटखे वाला, कभी हरा-चना वाला तो कभी चाय वाला।

इसी आने-जाने के क्रम में एक और मुसीबत आई। एक अंडे वाले की बाल्टी उसके सर पर जोर से लग गयी और वह तिलमिला उठी -

“अन्हरा मुझऊंसा मार देलक रे मार देलक...”

 अंडे वाले ने भी जबाब दिया -

“रास्ता पर बईठेगी त अईसाहीं न होगा, जेनरल में काहे नहीं जाती है”

 झगडा बढ़ने लगा और दोनो गालियों पर उतर आये। वो यात्री जिनकी अभी-अभी मीठी नींद लगी थी, जाग गए और चिल्लाने लगे दोनों पर। औरत को भी जम कर डांटा गया -

“जेनरल बना है न तुम्हारे लिए, जाओ.. जेनरल में जाकर कहे नहीं बैठती? टीटी साहेब को आने दो बेलगाते हैं तुमको यहाँ से”



काले कोट वाले साहब आये और हिदायत दिया कि “अगले स्टेशन आने पर जेनरल में नहीं गयी तो जेल में डाल देंगे”

औरत ने पूछा “जेनरल केने है?”

टीटी साहेब बोले “पीछे का चार डब्बा छोड़ के अगला वाला डब्बा”

“आठ गो गेट छोड़ के अगला गेट”



अगला स्टेशन काफी छोटा था, ट्रेन का तो स्टॉपेज भी नहीं था सिर्फ सिग्नल के लिए रुकी थी। वह औरत झट से उतरी, गेट गिनते-गिनते जेनरल बोगी तक पहुँची पर भीड़ देख कर दंग रह गयी। जेनरल बोगी पूरी खचाखच भरी हुई थी। होली की भीड़ थी, सभी कमा कर अपने-अपने घर वापस जा रहे थे। उसने बहुत कोशिश की पर चढ़ नहीं पायी। किसी ने बोला आगे वाले डिब्बे में जाओ तो वह आगे चली गयी पर उधर भी वही हालत। फिर किसी ने बोला आगे जाओ और वो आगे चलती गयी पर किसी में भी जगह नहीं मिली उसे चढ़ने को। उसे कुछ समझ नहीं आया वो वापस अपनी पुरानी जगह लौटने लगी। इसी बीच ट्रेन खुल गयी और वो दौड़ने लगी ट्रेन से तेज पर थोड़ी देर में ट्रेन और तेज हो गयी और वो चिल्लाती रह गयी -

“रोकऽ.. रोकऽ.. रोकऽ न हो भईया..या.. टरेन रोकऽ न.....”

ट्रेन की रफ़्तार तेज होने लगी और उसकी धीमी। ट्रेन अपने पूरे होश में दौड़ने लगी और वह औरत हाँफते हुए बेसुध गिर गयी वहीँ प्लेटफार्म पर। जब तक ट्रेन थी, प्लेटफार्म पर रौशनी थी, ट्रेन जाते ही अँधेरा छा गया ठीक उसकी किस्मत के इन दो दिनों जैसा।



जिस तरह अपने किसी सहयात्री के गिरे पड़े होने से ट्रेन को कुछ फर्क नहीं पड़ता, ठीक वैसे ही ज़माने को किसी एक वर्ग के पतित-पिछड़े होने से फर्क नहीं पड़ता.. हम चलते जाते हैं उन्हें कहीं पीछे गिरा-पड़ा छोड़। – प्रकाश ‘पंकज’

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मरुथल का तीर

पाँव-फफोले देख-देख तू क्यों सकुचाए अधीर, 
आगे बढ़ कर देख मिलेगा - इस मरुथल का तीर।  

 – प्रकाश ‘पंकज’

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

चलो लोकतंत्र की लाश पर जलसा किया जाये

लोकपाल की लाश का मजमा किया था हमने,
चलो लोकतंत्र की मौत पर जलसा किया जाये .. 

बुधवार, 25 जनवरी 2012

कमाने की तड़प में खाना भूल गए?

खाने की तड़प से ही तुमने कमाना सीखा ... 
..... और कमाने की तड़प में खाना भूल गए   – प्रकाश ‘पंकज’

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

फुलझड़ियों को आग लगाने से क्या होगा आज? बताओ !

छोड़ो गाना शब्द प्रलापी, व्यर्थ न ऐसे शीश नवाओ।
हिम्मत बाँधो, वीर प्रतापी, पत्थर काटो, राह बनाओ।
फुलझड़ियों  को आग लगाने से क्या होगा आज? बताओ !
साहस हो तो बम सुलगाओ, बहरों के पर्दे फाड़ गिराओ।
– प्रकाश ‘पंकज’


* संगर्भ: शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव


सोमवार, 18 जुलाई 2011

भारत बनाम भ्रष्टाचार: छोड़ो गाना शब्द प्रलापी

छोड़ो गाना शब्द प्रलापी,
व्यर्थ न ऐसे शीश नवाओ।
हिम्मत बाँधो, वीर प्रतापी,
पत्थर काटो, राह बनाओ।  

– प्रकाश ‘पंकज’

बुधवार, 29 जून 2011

भारत बनाम भ्रष्टाचार: 'Thug' की जननी भारतभूमि

क्या आप जानते हैं?
अंग्रेजी में 'Thug' या 'Thuggery' शब्द भारत से हीं गया है।
क्यों? 
इतना भ्रष्टाचार देखकर आपको नहीं लगता 
कि भारत सबसे अच्छी जगह है ऐसे शब्दों के जनने के लिए? 
हमें तो गर्व होना चाहिए न?


– प्रकाश ‘पंकज’

शनिवार, 25 जून 2011

भारत बनाम भ्रष्टाचार: जनता भींगेगी या बरसेगी?


बारिश हो रही है, भींगो न भींगो तुमपर है;
छत्र जो है तुम्हारे पास।

देश के मौसम भी कुछ ऐसे हैं 
कि खून बरसेगा हीं बरसेगा;
तब कोई छत्र न होगा, भींगना ही होगा
– प्रकाश ‘पंकज’


* छत्र ~ Savior

गुरुवार, 23 जून 2011

कभी न पूरी हो सकने वाली जिद्द

तारीखें याद नहीं रहती,
घड़ियों को देखना छोड़ दिया..
मैंने हर उसके लिए रुकना छोड़ना सोंचा था जो मेरे लिए न रुका ...
..
(कभी न पूरी हो सकने वाली जिद्द?)

- प्रकाश 'पंकज'

बुधवार, 22 जून 2011

कैसी है रे होड़ सजन सब पाक चरित सुलगावै?

कैसी है रे होड़ सजन सब पाक चरित सुलगावै?
का करी घर मा बैठ कहो निज धरती आग लगावै? – प्रकाश 'पंकज' 

ऐ खाकनशीनों उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुंचा है,
जब तख्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे।
अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं,
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे।
दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे,
कुछ अपनी सजा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी सजा ले जाएंगे।
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं,सर भी बहुत,
चलते भी चलो कि अब डेरे, मंजिल पे ही डाले जाएंगे।  - फैज अहमद फैज 

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

वाह रे ग्लोबलाईजेशन ! तूने घरवालों को भी बेघर कर दिया

वाह रे ग्लोबलाईजेशन !
तूने घरवालों को भी बेघर कर दिया।
सभी खानाबदोश जैसे इधर-उधर भाग रहे हैं;
शायद उन्हें भी पता नहीं, क्यों?

– प्रकाश ‘पंकज’



 * चित्र: गूगल साभार 

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

हनुमान तो सबके भीतर है, जगाने वाले जामवंत की आवश्यकता है।

"उस युग के जामवंत"
"इस युग के जामवंत"
हनुमान तो सबके भीतर है,
जगाने वाले जामवंत की आवश्यकता है।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सम्मान पाने के लिए सम्मान देना सीखें

यदि आप खुद को मुझसे छोटा समझते हैं,
मैं आपसे बहुत छोटा हूँ
यदि आप मुझसे बड़े होने का दम्भ भरते हैं,
तो मैं आपसे भी बड़ा हूँ।  – प्रकाश ‘पंकज’

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

अंगद सा हमने पद रोपा

ले नाम सियावर रामचन्द्र,
अंगद सा हमने पद रोपा।
है पूत कहीं ऐसा जग में
जो पाँव हमारे डिगा सके?  
 –प्रकाश ‘पंकज’


सन्दर्भ: अंगद की आस्था और विश्वास

शनिवार, 20 नवंबर 2010

वो क्या थी नभ की छत – प्रकाश ‘पंकज’

वो क्या क्षुधा का स्वाद था?
वो क्या थी नभ की छत?

रविवार, 14 नवंबर 2010

"बाल मजदूरी कानून".. किसका अभिशाप? किसका वरदान?

"बाल-मजदूरी कानून".. किसका अभिशाप? किसका वरदान?

गजब के घटिया कानून है देश के:

एक समृद्ध परिवार का बच्चा जिसकी परवरिश बड़े अच्छे ढंग से हो रही है, अपने स्कूल और पढाई छोड़ कर टी.वी. सीरियल या फिल्म में काम करता है सिर्फ और सिर्फ अपनी और अपने परिवार की तथाकथित ख्याति के लिए तो यह "बाल-मजदूरी" नहीं होती। वेश्यावृति करने वाली मीडिया भी इसे प्रोत्साहित करती है।

वहीँ अगर कोई बच्चा अपने और अपने परिवार वालों का पेट पालने के लिए प्लेट धो लेता है तो यह "बाल-मजदूरी" हो जाती है और वहीँ यह दोगली मीडिया उस बात को उछाल-उछाल कर कान पका देती है।

.. हमारे यहाँ ऐसे लोगों की भी कमी बिल्कुल नहीं है  जो कहेंगे कि वे टी.वी. शो वाले प्रतिभा को प्रोत्साहित कर रहे हैं। ऐसे लोगों को मेरा एक ही जबाब है अगर आपके बच्चों का टी.वी. शो में नाचना गाना प्रतिभा हो सकती है तो हरेक शाम अपनी और अपने घरवालों की रोटी जुगारने की कोशिश में उन बच्चों की प्रतिभा कहीं से भी कम नहीं है, बल्कि ज्यादा ही है। और,  अगर आप उनके सामाजिक विकास और शैक्षणिक विकास की बात करें तो दोनों जगहों पर एक हीं बात सामने आती है कि वे सभी अनिवार्य शिक्षा से दूर हो रहे हैं। जुलाहे का बच्चा तो सुविधा नहीं मिलने के कारण शिक्षा में पिछड़ रहा है पर आपका बच्चा तो सुविधाओं के बावजूद उस धारा में बह रहा है जो शैक्षणिक विकास से बिलकुल अलग है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी एक "कबाड़ पीढ़ी" पैदा होगी।

यहाँ मै कानून को लाचार ही नहीं उन लोगों का नौकर भी समझूंगा जिनके पास पैसा है, शक्ति है, वर्चस्व है। यही लोग कानून को कुछ इस तरह से बनाते है कि जिनके पास ऐसी समृद्धि है वो इससे निकल सकते हैं और जिनके पास नहीं है वो पिसे जाते हैं इन कानूनी दैत्य-दन्तों द्वारा।

अगर कोई होटल-ढाबे वाला किसी को जीविका देने के लिए "बाल-मजदूरी" करवाने का दोषी हो सकता है तो आज हम सारे लोग जो बड़े मजे से टी.वी. के सामने ठहाके मारते हैं, वाह-वाह करते है, मेरी नज़र में वो सब दोषी हैं "बाल-मजदूरी" करवाने के।
... कानून माने या न माने।
... आप माने या न मानें।
... और मुझे यह भी मालूम है कि अकेले सिर्फ मेरे मानने से भी कुछ नहीं होने को है।

और अंत में इतना हीं कहूँगा कि यदि आपमें अब भी समाज के प्रति थोड़ी नैतिक जिम्मेदारी बची हो तो इसपर विचारें और ऐसे टी.वी. सीरियलों, फिल्मों का "प्रतिकार" करें, सामाजिक बहिष्कार करें, उनका सहभागी न बनें, किन्नरों जैसे तालियाँ न पीटें।

चलता हूँ और आपके लिए कुछ लिंक छोड़ जाता हूँ। धन्यवाद!

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

हम उगते सूर्य से पहले डूबते सूर्य को पूजते हैं।


भईया हम तो बिहारी हैं,
उगते सूर्य से पहले
डूबते सूर्य को पूजते हैं,
अर्घ्य देते हैं,

धन्यबाद करते हैं !

है किसी और में ऐसा साहस, इतनी विनम्रता ?  

अगर हो तो अति सुंदर।  

जिसने दिन भर हमें राह दिखाया, चलने की शक्ति दी, मनोबल कम न हो ऐसी उर्जा दी, उनकी पूजा हम पहले करते हैं, उसे धन्यबाद हम पहले करते हैं 
और बाद में उनकी पूजा करते हैं जो हमारे आगे की दिनचर्या में सहायक होंगे ..

.. उगते सूरज को तो सभी पूजेंगे इसमें कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि उनके बिना दिनचर्या नहीं चलने वाली, यह एक मजबूरी है ..
पर महान वही है जो उस सीढ़ी को कभी न भूले जिसपर चढ वो अपनी मंजिल की ओर बढ़ता है और उनके प्रति श्रद्धा रखता है ..

... यह बात यहीं तक नहीं रह जाती बल्कि अपने माता-पिता के प्रति भी यही भाव होना चाहिए
उन डूबते हुए सूर्य को उनके बच्चे कभी न भूलें
हे समदर्शी सूर्यदेव! हमें कुछ देना न देना पर इतनी बौद्धिक क्षमता जरूर देना कि हर डूबते सूर्य के योगदान को समझें, उनका आदर करें, उनके प्रति श्रद्धा रखें और किसी भी ढलते सूर्य को अकेला न छोडें ।

आपको और आपके परिवार को छठ महापर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!

बुधवार, 10 नवंबर 2010

'पंकज-पत्र' पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

'पंकज-पत्र' पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

पिछले कुछ दिनों से मेरे मन की स्थिति दयनीय थी। चाह रहा था कुछ लिखना पर लिख नहीं पा रहा था। करुण स्थिति में लिखी गई यह कविता समाज के कुछ ऐसे कुख्यात प्रकार के लोगों को समर्पित है जो की "निम्न" हैं :
अनुच्छेद।।१।। कलमाड़ी, अशोक चव्हाण, ए. राजा और उन जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए।
अनुच्छेद।।२।। आई.आई.पी.एम के चोटी वाले अरिंदम जी जैसे अन्य शिक्षा के व्यापारियों के लिए। 
अनुच्छेद।।३।। गिलानी, अरुंधती जैसे अन्य देशद्रोहियों और राष्ट्र-विरोधियों के लिए जो देश की अखंडता पर चोट करते हैं।
कविता का पता (जरूर पढ़ें): 'पंकज-पत्र' पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

मुझे हर चीज़ में डंडा करने की बुरी आदत है

लोग कहते हैं,
मुझे हर चीज़ में डंडा करने की बुरी आदत है।

मैं सोंचता हूँ,
डंडे से तो कुछ बदला नहीं,
अबकी बाँस उठाकर कोशिश करूँ।

*चित्र: गूगल साभार