सोमवार, 19 अगस्त 2013

पतित-पावन पतरातू - (लघु कथा)

पतित-पावन पतरातू

हर एक वो जगह जहाँ ट्रेन रुकती है, स्टेशन नहीं होता।

उस औरत को यह मालूम न था।

ट्रेन रूकती नहीं कि पूछ पड़ती -

“कौना टेशन है बबुआ?”



हर एक वो ट्रेन जो चलती है, पतरातू नहीं जाती।

उस औरत को तो यह भी न था पता।

जो भी जिस ट्रेन में कहता चढ जाती और कहती -

“पतरातू आते बतला दीहऽ बबुआ”



कुल मिलाकर वो उसकी तीसरी ट्रेन थी और वो भी पतरातू नहीं जा रही थी। लोगों से सलाह मिली धनबाद में उतर कर दूसरी ट्रेन लेने की, पर उसे कितना समझ आया वो वह ही जानती थी। वह बार-बार बंद दरवाजों और खिड़कियों को खोल बाहर झाँकना चाहती, जैसे अपनी धरती, अपने खेत, अपना घर आते हीं पहचान लेगी। पर उसे गेट और खिड़कियाँ खोलना भी नहीं आता था। बार-बार असफल प्रयास किया उसने गेट को खोलने का, फिर थक कर बैठ गयी।



उस औरत का स्लीपर से सरोकार क्या?

टिकट और जुर्माने से सरोकार क्या?

काले कोट और खाकी वर्दी वालों से सरोकार क्या?

नए रेल बजट से सरोकार क्या?



वो डब्बा स्लीपर वाला था, टिकट थी उसके पास जेनरल की और वो भी पिछले दिन की (वह पिछले दिन से सफर कर रही थी)।  कभी काले-कोट वाले फटकार कर चले जाते, कभी खाकी वर्दी, तो कभी कोई अन्य यात्री। सभी एक ही भाषा में बात करते -

“हुह!... उहाँ जाकर बईठो” ,

“होने जाओ, होने” ,

“जेनरल में जाकर बईठो”



किसी वेटिंग वाले ने संवेदना से कह दिया -

“गेटेर पाशे बोशे जान ... गेट के पास बैठ जाईए”

तो चढ़ने-उतरने वाले डाँटने लगे कि

“गेट तो छोड़ के बैठो”

 

आखिर में वो अपनी गठरी लेकर शौचालय के बाद डिब्बों के जुड़ाव वाली जगह पर बैठ गयी जहाँ गंध तो आ रही थी पर अभद्र फटकारों से अच्छी थी। जुड़ाव वाला स्थान जहाँ वो बैठी थी लहरों सा ऊपर नीचे हो रहा था। वो बगल के फाँकों से नीचे पटरियों के बीच झाँकने लगी और मुस्कुराते हुए उसी में मग्न हो गयी। उसे देख ऐसा लग रहा था कि मनो वो किसी ट्रेन में नही बल्कि एक नाव में बैठी है। नाव लहरों पर ऊपर नीचे हो रही है और वह औरत नीचे नदी की उलटी धार को चीरती हुई उसकी नाव को देख आनंदित हो रही है। उसे अपने खेवैये पति पर भी खूब भरोसा है कि वो उसे पतरातू तक जरूर ले जा पायेगा सुरक्षित। बैठे-बैठे उसकी आंखें लग गयी। फिर थोड़ी देर बाद वह वहीँ लेट गयी।



शाम से रात हो चुकी थी।



कुछ देर बाद एक भूंजा वाला पिछले डब्बे से आया और उसकी गठरी पर पैर रख दिया। अचानक उसका ध्यान टूटा और उसके मुँह से फूट पड़ा -

“अभगला, ई मोटरी में कशी बाबा के परसाद हथीन, करम फूट गेल हउ का तोहर? जो.. जो.. जो..”

भूंजा वाला कुछ बुदबुदाता चला गया।

 उस रस्ते अब कुछ और भी लोग आने लगे थे। कभी अंडा वाला, कभी पानी वाला, कभी गुटखे वाला, कभी हरा-चना वाला तो कभी चाय वाला।

इसी आने-जाने के क्रम में एक और मुसीबत आई। एक अंडे वाले की बाल्टी उसके सर पर जोर से लग गयी और वह तिलमिला उठी -

“अन्हरा मुझऊंसा मार देलक रे मार देलक...”

 अंडे वाले ने भी जबाब दिया -

“रास्ता पर बईठेगी त अईसाहीं न होगा, जेनरल में काहे नहीं जाती है”

 झगडा बढ़ने लगा और दोनो गालियों पर उतर आये। वो यात्री जिनकी अभी-अभी मीठी नींद लगी थी, जाग गए और चिल्लाने लगे दोनों पर। औरत को भी जम कर डांटा गया -

“जेनरल बना है न तुम्हारे लिए, जाओ.. जेनरल में जाकर कहे नहीं बैठती? टीटी साहेब को आने दो बेलगाते हैं तुमको यहाँ से”



काले कोट वाले साहब आये और हिदायत दिया कि “अगले स्टेशन आने पर जेनरल में नहीं गयी तो जेल में डाल देंगे”

औरत ने पूछा “जेनरल केने है?”

टीटी साहेब बोले “पीछे का चार डब्बा छोड़ के अगला वाला डब्बा”

“आठ गो गेट छोड़ के अगला गेट”



अगला स्टेशन काफी छोटा था, ट्रेन का तो स्टॉपेज भी नहीं था सिर्फ सिग्नल के लिए रुकी थी। वह औरत झट से उतरी, गेट गिनते-गिनते जेनरल बोगी तक पहुँची पर भीड़ देख कर दंग रह गयी। जेनरल बोगी पूरी खचाखच भरी हुई थी। होली की भीड़ थी, सभी कमा कर अपने-अपने घर वापस जा रहे थे। उसने बहुत कोशिश की पर चढ़ नहीं पायी। किसी ने बोला आगे वाले डिब्बे में जाओ तो वह आगे चली गयी पर उधर भी वही हालत। फिर किसी ने बोला आगे जाओ और वो आगे चलती गयी पर किसी में भी जगह नहीं मिली उसे चढ़ने को। उसे कुछ समझ नहीं आया वो वापस अपनी पुरानी जगह लौटने लगी। इसी बीच ट्रेन खुल गयी और वो दौड़ने लगी ट्रेन से तेज पर थोड़ी देर में ट्रेन और तेज हो गयी और वो चिल्लाती रह गयी -

“रोकऽ.. रोकऽ.. रोकऽ न हो भईया..या.. टरेन रोकऽ न.....”

ट्रेन की रफ़्तार तेज होने लगी और उसकी धीमी। ट्रेन अपने पूरे होश में दौड़ने लगी और वह औरत हाँफते हुए बेसुध गिर गयी वहीँ प्लेटफार्म पर। जब तक ट्रेन थी, प्लेटफार्म पर रौशनी थी, ट्रेन जाते ही अँधेरा छा गया ठीक उसकी किस्मत के इन दो दिनों जैसा।



जिस तरह अपने किसी सहयात्री के गिरे पड़े होने से ट्रेन को कुछ फर्क नहीं पड़ता, ठीक वैसे ही ज़माने को किसी एक वर्ग के पतित-पिछड़े होने से फर्क नहीं पड़ता.. हम चलते जाते हैं उन्हें कहीं पीछे गिरा-पड़ा छोड़। – प्रकाश ‘पंकज’