सोमवार, 21 दिसंबर 2009

दो जर्जर बाँसों की सीढी

दो बाँसों की बनी है यह सीढी ,
क्या है? तोड़ डालो ।
अच्छी खासी ऊंचाई तक पहुँच ही गए हो
और वापस जाने का विचार तक नही लाना है मन में ।
व्यर्थ ही इस सीढी को देखकर बार-बार तुम
संकोच करोगे आगे बढ़ने से,
ऊपर देखोगे नजरें झुकाकर,
जयघोष कर भी पराजित समझोगे ।
उनकी टकटकी लगाती निगाहों को देख व्यर्थ ही,
तुम्हे बार-बार अपने बचपन में जाना होगा,

जहाँ तम्हें चलने से ज्यादा गिरने की आदत थी,
और दो हरे भरे चेहरे तम्हें चलने को प्रेरित करते थे।
खाने से ज्यादा भूखे रहने में मजा आता था,
बिना उद्देश्य के बस खेलना पसंद था,
पर उन दो चेहरों को इनसे शायद इर्ष्या होती थी,
तम्हारे भूख से, चाहते नही थे की तुम क्षुधा का स्वाद तक भी लो,
तम्हारे निर्लक्ष्य जीवन तक को उन्हों ने बरबाद कर दिया ।


अरे छोडो इन बातों को, आगे देखो !
देखो कोई तुमसे पहले अगली मंजिल तक न जा पहुंचे,
तोड़ दो इस पुरानी सीढी को व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद कर रहे हो ।
काम नही आने वाली यह सीढी अब तुम्हारे।
न हीं इनकी हड्डियों में वो बल रहा की तुम्हे सहारा दे सके,
तम्हें और ऊपर उठा सके अगली मंजिल तक ।
इनका भार अब तुम्हे न उठाना परे,
देखो भाग चलो !

भूल कर भी अब इनका सहारा मत लेना,
ख़ुद तो इन्हे टूटना ही है, कहीं तुम्हे न गिरा दें ।
आगे बढो! ऊपर चढो ऊपर!
मत देखो नीचे इन जर्जर बाँसों को ।
जरा भी न विचारो इन्हें !
तुम निकले हो विश्व जीतने,
देखो बंध न जाए तुम्हारे पैरों से ये
उड़ न पाओगे तुम कभी,
पिछड़ जाओगे भीड़ में ,
खो एक जैसी शक्लों की भीड़ में,
पहचानेगा नही कोई तुम्हे,
इन दो बूढे बाँसों के सिवा ।
अरे ! देखो...ये क्या?
तुमसे पीछे चलने वाले आगे जा रहे हैं,
विलम्ब न करो मिटा दो अस्तित्व इनका ।

क्या सोचते हो?
छोड़ दोगे इन्हे अपनी हाल पर?
बादल गरज रहे हैं , वर्षा के जल से फूल जाएँगे,
फ़िर क्या धूप भी है न.. इन्हे सुखा देगी।
और ये अकेले तो नहीं एक दूसरे की देखभाल कर सकते हैं ।
एक टूटेगा तो भी क्या?
इनके पायदान के जोड़ इतने तो मजबूत है कि
यह सीढी न टूटेगी ! यह पीढी न टूटेगी !
टूट जाए सारे बंधन, यह बंधन न टूटेगा ।
बहुत ढीठ हैं जानता हूँ ।
हाँ , दोनों टूट जाएँ तब की बात दूसरी है ।
पर यह तो होना ही है न?
परे रहने देता हूँ इन्हे यहीं ।

न ! न ! न ! ऐसी भूल न कर !
निकल न पायेगा इस भंवर से तू ।
कभी तो सोने जाओगे,
सोने नहीं देंगी तुम्हें ये सजल ऑंखें,

इन्हीं रास्तों पर
नभ को चादर मान परे रहेंगे ,
राह देखते एक कर्मनिष्ठ की ।
किचरों में सने करते रहेंगे विनतियाँ,
पंक को न चाहिए कुछ अपने इष्टदेव से,
बस इतनी ही कृपा हम मांगते त्रिदेव से,
शौर्य दे इतना उसे , पूर्ण हो मनोकामना !
हम राह देख हैं रहे, अपने श्रवण कुमार की।

.......... पर तुम्हारे कामनाओं की भी कोई सीमा है ?
-प्रकाश 'पंकज'
यह कविता अनुभूति पर भी प्रकाशित: http://www.anubhuti-hindi.org/nayihawa/p/prakash_pankaj/index.htm 

रविवार, 6 दिसंबर 2009

मानवता अवसाद हो गयी स्वान-संस्कृति उभर रही,

मानवता अवसाद हो गयी स्वान-संस्कृति उभर रही,
पर इसमें भी सुन्दरतम विश्वास्पात्रता कहाँ  रही ?

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

शस्त्र भारी हैं? चलो लेखनी को ही बना लिया तलवार

शस्त्र भारी हैं? चलो लेखनी को ही बना लिया तलवार

सोमवार, 23 नवंबर 2009

हे मेरे मृगचेतन मन, क्यूँ न मिटती इच्छाएँ तेरी !

हे मेरे मृगचेतन मन ! क्यूँ न मिटती इच्छाएँ तेरी ?

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

हृदय धरा रमता नहीं, विकल रहा जड़ होने को !

हृदय धरा रमता नहीं, विकल रहा जड़ होने को !

सोमवार, 16 नवंबर 2009

रक्त बहे पर नीर न बहे ऐसा निष्ठुर जड़ कर दो !

हे प्रभु! 
रक्त बहे पर नीर न बहे ऐसा निष्ठुर जड़ कर दो,
प्राण मिटे पर शब्द न हिलें ऐसी निष्ठा घर कर दो।
– प्रकाश ‘पंकज’

अब रोक न शिव तू कंठ हलाहल, सब विकल हो रहे जलने को !

अब रोक न शिव तू कंठ हलाहल, सब विकल हो रहे जलने को !

अब रावण कहो या दुश्शासन, तरस रहे हम तरने को !

अब रावण कहो या दुश्शासन,  तरस रहे हम तरने को !

बुधवार, 4 नवंबर 2009

प्रभु मोहे भी दसमुख कर दो - श्री राम धरा बुलवाऊंगा !


प्रभु मोहे भी दसमुख कर दो - श्री राम धरा बुलवाऊंगा !  - पंकज

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

शशिधर नृत्य करो ऐसा कि, नवयुग का फिर नव-सृजन हो !

शशिधर नृत्य करो ऐसा कि, नवयुग का फिर नव-सृजन हो !
भष्म कर दो अब यह धरती, पुनः धरा निर्माण हो, फिर से जन-एकांत हो !
शशिधर नृत्य करो ऐसा कि, नवयुग का फिर नव-सृजन हो !

सोमवार, 2 नवंबर 2009

शशिधर नाचो ऐसा तुम कि, नवयुग का फिर नव-सृजन हो !

शशिधर नाचो ऐसा तुम कि, नवयुग का फिर नव-सृजन हो !

शुक्रवार, 19 जून 2009

धरा तपेगी व्योम तपेगा, तिल-तिल हर इन्सान मरेगा - १

मैं एक पेड़ हूँ जो खड़ा है एक A.C (वातानुकूलन यंत्र) के वायु निकास के सामने, ऐसा लोग कहते हैं पर सच तो यह है की उस वायु निकास वाले डब्बे को मेरे सामने रखा गया है जो आग की तरह मुझे कब से झुलसाने की कोशिश कर रहा है | अकस्मात् ही कभी मैं रो पड़ता हूँ इन मनुष्यों के स्वभाव को देखकर जो स्वयं अपनी जाति के साथ हमारा भी अहित किये जा रहे हैं | अपने साथ वो हमें और बाकी के सारे जीवों को नष्ट करने पर तुले हैं | दो-दो आँखों के होते हुए भी वे अंधे हैं , या तो फिर वो वास्तविकता को देखना ही नहीं चाहते | वे यह क्षण भर के लिए भी क्यों नहीं सोचते कि भविष्य में वे धरती पर क्या छोड़ जायेंगे, क्या ये महल, ये अट्टालिकाएं और उनमें लगी वातानुकूलन यंत्र क्या इस धरती का सृजन कर सकेंगी? हमारी यह सुजला- सुफला धरती ऐसी रह पायेगी?

समझ नहीं आता मैं हंसूं या रोऊँ उस दिन कि दुर्दशा देख कर | बात है २५ मई २००९ की | एक चक्रवात के आने की सूचना मिली थी | बंगाल की खाड़ी से उठे एक चक्रवात जिसे लोगों ने (जरूर ही किसी मौसम विभाग के अधिकारी ने) 'आइला' नाम दिया | वर्षो बीत गये थे मुझे किसी चक्रवात को देखे पर मैं भी औरों की तरह चिंतित था | मुझे यह लग रहा था कि प्रकृति आज मानव के अत्याचार का उत्तर देने वाली है | जो प्रकृति सबका सृजन करती है, विनाश लाने वाली है |

उस वातानुकूलित यंत्र के पंखे को देख कर मुझे कुछ भिन्न सा प्रतीत तो रहा था | जो मुझे कई महीनों से झुलसाने कि कोशिश कर रहा था उसका भी विनाश मुझे दिख रहा था | साथ ही इसका आनंद ले रहे लोग जो बंद कक्ष में बैठ बाहर के जलते वातावरण से अनभिज्ञ अपने कार्यों में रमे रहते हैं, उन सबकी दशा पर मुझे न जाने क्यों दया आने लगी | सारे लोग अपने अपने घर जल्द से जल्द पहुँचना चाह रहे थे | सड़कों कि हालत बिगड़ रही थी | मेरे जैसे कई पेड़ गिर रहे थे , न जाने क्या-क्या अभिशाप दे रहे होंगे मानव जाति को, या शायद उन्हें इस संकट से बचाने की याचना कर रहे हों ईश्वर से | क्योंकि हमलोग जीते तो है ही प्रकृति के लिए, प्रकृति के जीवों के लिए, पर मृत्यु के बाद भी चाहते हैं कि हमारा शव किसी अच्छे प्रयोजन में लाया जाये, किसी जिव को छत्रछाया मिल जाये हमारे शव से तो हमारी मृत्यु भी सफल हो जाती है |
मैं बात कर रहा था उस दिन कि जब प्रकृति ने बंगाल के कुछ क्षेत्रों में विनाश का मन बना ली थी | उस दिन लोग भाग रहे थे गिरते हुए पेड़ों और खम्भों से सावधान | बसें नहीं मिल रही थी कि वो लोग अपने घर जा सकें, जो मिल रही थी वो भीड़ से ठसा-ठस | जिनके पास अपनी गाड़ी थी वो कुछ लोग को अपने साथ ले जा रहे थे पर कितनों को ले जाते | मैं तो प्रार्थना कर रहा था - "हे ईश्वर ! ये सारे चेहरे मेरी पहचान के हैं ऐसा न हो कि कोई मेरे जैसा भरी भरकम पेड़ उन गाड़ियों पर टूट कर गिरे और ना ही कोई खम्भा" - जिसका मुझे सबसे ज्यादा डर था | जो बसें लोगों के लिए जगह जगह (जहाँ नहीं रुकना चाहिए वहां भी) रुका करती थीं आज उन बसों पे चढ़ने के लिए मधुमक्खियों कि तरह लोग जुट जा रहे थे |

लोगों को उस दिन भी यह याद नही आया होगा की यह सब उन्ही के कर्मों का परिणाम है | हमेशा की तरह आज भी वो अपना और सिर्फ अपना क्षण-स्थायी बचाव करने में लगे थे | पर अभी तक तो सिर्फ चक्रवात का संकेत मात्र मिला था | चक्रवात आना अभी बाकी था | यह प्रभाव सिर्फ चक्रवात आने से पहले का था | अति तीव्र वेग वायु जो शायद एक पतले दुबले आदमी को धकेल कर गिराने के लिए काफी था | आज बड़े अधिकारियों में और मज़दूरों में कुछ ज्यादा फर्क नही दिख रहा था | मुझे यह सोचकर संतुष्टि हो रही थी की शायद इनमें से कुछ-एक लोग तो समझेंगे पर्यावरण की महत्ता को और यह जानेंगे की ये सब उन्ही के कारण हो रहा है | पर्यावरण को असंतुलित करने का सारा श्रेय उनको ही जाता है |पर शायद ही किसी ने सोचा होगा क्योंकि इतने व्यस्त लोगों के पास समय कहाँ होता है?

चक्रवात के आने का समय था शाम ५ बजे से शाम के ७ बजे तक और अभी सिर्फ ३ ही बजे थे | कुछ देर मैं भी अपनी हित की सोचने लगा | सोचा कितना अच्छा होता कि ये सारे पंखे जो कि ऊँचे ऊँचे इमारतों कि सारी गर्मी को समेट कर हमारे ऊपर आग कि तरह बरसाता है | पूरे वातावरण को गर्मी से झुलसा कर अंदर इमारतों में बैठे लोगों को इतना तक ज्ञात नहीं होने देता कि यह गर्मी का मौसम है या सर्दी का | आज मेरा तन और मन इस वृष्टि से तृप्त हो रहा था पर मै वायु के प्रबल वेग से बुरी तरह झंझोरा जा रहा था | मैने सोचा आज अगर मै गिरा भी दिया जाऊँ इस पवन वेग से तो तो यह एक प्राकृतिक मौत होगी इन मनुष्यों के द्वारा झुलस-झुलस कर मरने से तो काफी अच्छा होगा - तृप्त हो मरूँगा |

यह चक्रवात निसंदेह प्रकृति के कोप था | मेरे जैसे कई पेड़ गिर रहे थे और साथ में लगी दीवारों को भी गिरा रहे थे | जो लोग भीगने मात्र से डरते थे वो आज भीगने कि चिंता न कर सुरक्षित घर पहुँचने कि कोशिश में लगे थे | अचानक देखा पवन वेग तीव्र हुआ और मेरा शत्रु परास्त होता दिख रहा था | वो पंखे वाला डब्बा खुल कर छज्जे से निचे गिरने वाला था | और देखते देखते गिर भी गया और वह अपने ही पुर्जों में बिखर गया | मेरा खुश होना अपेक्षित था पर मानवों का यह दुर्दिन देख अपनी ख़ुशी को भी मै भूल बैठा और यह विनती करने लगा -"हे इश्वर! इन्हें सदबुध्धि दो | किसी न किसी माध्यम से इन्हें सचेत करो उस महाप्रालय से जो कि आ सकता है पर्यावरण के असंतुलन से | हे इश्वर! इन्हें सचेत करो" | और इसी चिंतन में मैं खो गया और स्वयम को झंझावात को समर्पित कर परिणाम की चिंता छोड़ प्रार्थना करने लगा इन मतलबी इंसानों के लिए |

------------------------------------------------------------------------------- क्रमशः