गुरुवार, 26 मार्च 2015

"आवरण" - (लघु कथा)

"आवरण"

मैं अभी एक खाली ऑटो में बैठा ही था। ऑटो वाला बाकी सवारियों का इन्तजार कर रहा था। टाइम पास के लिए मैंने दोस्त को फोन लगाया। उधर से उसकी आवाज़ आयी,
“हाँ बोल, कैसा है? ”

“ठीक हूँ, तू बता? क्म्पनी स्विच मार ली और बताया तक भी नहीं?”

“वो तो चलता ही रहता है यार।  जब तक पैसे निकाल सको इन कम्पनियों से, निकाल लो। बाद में ये बिलकुल भी नहीं पूछने वाले तुमको। और अभी भी तो ये चूस ही रहे हैं हमको। तो हम भी क्यों न अपोर्चुनिस्ट बनें?”


“सही कहा। ”


“तुम्हें पता है? कंपनी के साथ साथ आई-फ़ोन भी चेंज केर लिया है। बोर हो गया था पुराने वाले से। ”

“यार तू इतना महँगा-महँगा फोन साल-दो-साल में चेंज करेगा?”

“स्टेटस सिम्बल है भाई। स्टेटस सिम्बल!”

“अच्छा रहने दो ! अभी बता क्या कर रहा है?”

“मॉल में हूँ, पी.वी.आर से निकल रहा हूँ। इतने पैसे बेकार गए, मूवी बकवास निकली। ट्रेलर देखने से तो अच्छा लग रहा था पर मूवी एकदम बकवास। सिर्फ प्रोमोशन पर चल रही फिल्म।
.... और तुम कहाँ हो इस समय?”

“ऑटो रिक्शा में बैठा हूँ, भरे तब तो चले, चल ही नहीं रहा ये। ”

“इस शहर का ट्रांसपोर्ट भी तो बहुत स्लो है।“

“न न न। तुम नए हो। मैं जब यहाँ आया था तो मुझे भी ऐसा लगा था। लेकिन इधर कुछ सालों में चेंज आया है। न्यू टाउन की ओर तक पूरा शहर चमचमा रहा है। भीड़ तो है कोलकाता में, पर साधन इतने हैं कि गिनते रह जाओगे। ट्राम है, बस है, लोकल ट्रेन है, मेट्रो ट्रेन है, ऑटो है, टैक्सी है, कालिंग कैब फैसिलिटी है। पानी के रस्ते जाना है तो फेरी है और वो भी बिलकुल सस्ता। आस-पास जाना हो तो मैंनुअल रिक्शा तो है ही; हाथ वाला भी और पैडल वाला भी। सभी क्लास के लोगों के लिए कुछ न कुछ है; अपने हिसाब से चुन लो। अमीर से अमीर और गरीब से गरीब; सबके लिए।”

“हाँ हाँ .. ठीक है ! फिर भी दिल्ली और मुंबई की बात ही अलग। खैर चलो, बाद में बात करते हैं। फ़ूड कोर्ट में हूँ कुछ आर्डर कर लूँ , नहीं तो तेरी भाभी गुस्सा हो जाएगी”

“ओके ओके ।”
फोन पर बात करते हुए ही मैंने एक औरत को देखा था। वह बिलकुल ही गन्दे कपड़ों में थी। गोद में उसका बच्चा भी था। वह ऑटो में बैठने लगी थी। एक हाथ से फोन थामे मैंने किसी तरह दूसरे हाथ से जेब की रुमाल निकाल कर नाक पर रखा और उसकी गंदगी से बचने के लिए किनारे की ओर थोड़ा सिकुड़कर बदस्तूर बातें करता रहा था।
फोन जेब में रखते ही उसकी ओर ध्यान गया। वह ऑटो में बैठने के बदले अब भी बाहर खड़ी थी। देखने से ही लग रहा था कि वह भीख मांग कर अपना गुजारा करती होगी। बाल उसके ऐसे जमे हुए थे कि जैसे महीनों से न धोये गए हों। माथे पर एक घाव जो कि उसके चेहरे की बदसूरती को और भी बढ़ा रहा था। नाक में ताम्बे के तार की नथुनी जो कि गन्दगी ज़मने से काली और भद्दी  दिख रही थी। साड़ी के पल्लू में बाँधा हुआ शायद कुछ खाने का सामान। एक हाथ में त्रिशूल का गोधना और एक हाथ में गुदा हुआ उसका नाम "जसोधा रानी"।
उसकी गोद में उसका छोटा बच्चा था। उसके सिर और पैर पर घाव थे। तन पर कपडे के नाम पर एक गन्दा और गीला सा रुमाल, बहती हुई नाक और उस पर जमी हुई गन्दगी। उसके चेहरे पर शून्य से भाव थे जैसे बचपन हो ही न उसमे, रोना और हँसना जैसे जानता ही न हो। वह अपने माँ की साड़ी चबा रहा था। फोन पर बातें करते हुए मुझे बराबर इस बात से झुंझलाहट होती रही थी कि इससे मुझे ही कहीं कोई बीमारी न फ़ैल जाये। मन में ऑटो से उतर जाने का ख़याल भी आया था। अब जब उन्हें गौर से देख रहा था तो दिल उदास होता चला गया। खूब बादल घिर आये थे। भारी बारिस के आसार थे। ऐसे मौसम में उसकी गोद में बड़ी-बड़ी अबोध आँखों से इस दुनिया की हर चीज़ को निहारता यह बच्चा। क्या इस दुनिया में कोई और भी है इनका? अगर होता तो ऐसे खराब मौसम में यूं अकेले क्यों निकल पड़े हैं ये? कुछ देर के लिए दिल में बड़े अजीब भाव आने लगे। हॉस्टल के जमाने में अपने कमरे की दीवार पर चिपका वह पोस्टर घूम गया जिस पर विवेकानंद की तस्वीर थी और जिसे इन वर्षों में मैं भूल चूका था। उसके नीचे लिखा था, ईश्वर कहीं है तो वो हमारे अन्दर ही है। हम सब के अन्दर है।“

“वह इस औरत के अन्दर भी है।” मैंने सोचा, “इस औरत के आवरण के कारण उसकी बेइजती करना मानवता की बेइजती है।”
एक तरफ उस औरत और बच्चे को देख कर अन्दर कहीं घिन्न उमड़ आने का सा भाव भी आ रहा था, और दूसरी और दया का एक भाव भी। फिर अपने जिन्दगी की जद्दोजेहद में अकेले जूझ रही इस औरत के लिए कहीं आदर का भाव भी आया । ये विचार मन में आ ही रहे थे कि अचानक ऑटो वाले ने उसे हड़काना शुरू कर दिया।
"ए ए. पिछुने, पिछुने .. एई ऑटो जाबे ना ... पिछोने जा"  ( ऐ... ऐ... पीछे, पीछे। ये ऑटो नहीं जाएगी। पीछे जाओ।)

पता नहीं कि वो औरत गूँगी थी या नहीं, पर कुछ बोल नहीं रही थी, बस इशारों में ही अपने हाथ में रखे नोट को दिखा रही। शायद बताना चाह रही थी कि, उसके पास ऑटो का किराया है। फिर कभी वह हाथ भी जोड़ रही थी कि उसे ले चले। उस समय उसके चेहरे पर ऐसी गिड़गिड़ाहट के भाव आ रहे थे, मानो उसका जाना बहुत जरूरी था।  फिर भी ऑटो वाला उसे वैसे ही दुत्कारे जा रहा था।
"बोललाम न , एटा जाबे न ... पिछोने जा" (बोला न, ये ऑटो नहीं जाएगी, पीछे जाओ।)

ऑटो वाला अपने से पीछे वाले ऑटो की तरफ इशारा करने लगा और कुछ बुदबुदाया।  मुझे समझ तो आ गया था कि उस औरत को उसने ऑटो किराया देने के बावजूद भी क्यों नहीं बैठाया, फिर भी मैंने उससे कहा,  "यार ! बैठा ही लिया होता।"
उसने गुस्से से पीछे घूमते हुए जवाब दिया, "आप उसके बगल में बैठ पाएंगे ? उतरेंगे तो नहीं? सब पैसेंजर भाग जायेंगे।“

बारिश धीरे-धीरे तेज होने लगी थी। अचानक देखा कि एक तरफ से काफी  लोग दौड़ते हुए आ रहे थे। शायद किसी बस से उतरे होंगे। ऑटो को सवारी मिल गयी और वो औरत पीछे वाले ऑटो के पास खड़ी थी। उस ऑटो वाले ने भी उसके साथ वही किया। उसने भी अपने से पीछे वाले ऑटो की तरफ इशारा करते हुए बाकी सवारी को बैठा लिया। अब वह औरत तीसरे ऑटो वाले को अपने हाथ में रखा नोट दिखाती दिखी। मेरी ऑटो चल पड़ी  थी, और मैंने आख़िरी बार देखा कि, वह औरत ऑटो वालों को छोड़कर गोद में बच्चे को लिए तेज बारिश के बीच निर्जन हो चुके फूटपाथ पर चुपचाप खड़ी थी। बगल से गुजरती, बारिश में  चमचमाती उस एस.यू.वी. कार पर कटाक्ष कर रही थी वो कुरूपा। मानवता के ऊपर भी एक भद्दा सवाल उठा रही थी मातृरूपा। – प्रकाश 'पंकज'

(फोटो: सभार गूगल इमेजेज )