सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

धरा तपेगी व्योम तपेगा, तिल-तिल हर इन्सान मरेगा - २

कृपया इसका पहला भाग भी पढ़ें ( http://pankaj-writes.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html )

जब ध्यान टूटी तो देखा वायु-वेग पहले से तीव्र न हुआ था | क्षति हुई थी तो हमारे जैसे लम्बे खड़े पेडों की, उनसे लगे दीवारों की और कुछ टेलीफोन के खम्भों की और कुछ जीवों की जो मानव न थे और टूटने वाली दीवारों को अपना आश्रय समझ बैठे थे | हमारे आस पास के इलाको में ज्यादा क्षति न हुई थी | पर क्षति तो हमेशा की तरह सबसे ज्यादा हमारी ही जाति को हुई थी | कई पेड़ जड़ से उखड चुके थे | न जाने प्रकृति हमसे ही क्यों प्रतिशोध लेती है ?

सुन्दर वन में यह चक्रवात विनाश कर चुका था - वहां की सुन्दरता को कुचल चुका था | धरती जहाँ समृद्ध थी वहीँ पर विनाश का आमंत्रण था | जहाँ वन्य प्राणी सुरक्षित समझते है खुद को , जहाँ हरियाली हुआ करती है , जहाँ शीतल जल बहता है, जहाँ मनुष्य ने अपना वर्चस्व न जमाया था, उसी जगह को क्यूँ चुना गया विनाश के लिए | न जाने कितने हरे भरे गाँव डूब गये पर यहाँ Saltlake में ज्यादा कुछ बर्बादी न हुई थी | पर वो अग्नि वायु उगलने वाला डिब्बा मेरे सामने न था | खुश तो था पर मुझे नही लगा कि किसी ने सबक ली होगी | हलकी चोट से भला बहरे क्यूँ जागने लगे | जागृति तो प्रलय लाएगा | वृक्ष-हीन, जल-विहीन, उर्जा-हीन, पशु-पंक्षी-विहिन धरती, वृहस्पति कि तरह तपता हुआ वायुमंडल | या फिर पिघलता हुआ हिमालय, उफान मारती नदियाँ और फिर धीरे-धीरे जल मग्न होता भूभाग | पर उस समय जागने वाले न होंगे, न जगाने वाले होंगे, बचाने वाले नहीं बचेंगे या फिर यूँ कहिये कि समय न होगा अपनी गलतियों को सुधारने का | धरती फिर एक बार वीरान होगी, प्राणी-विहीन होगी | "हे प्रभु! कम से कम इन्हें ऐसा भयानक स्वपन तो दिखा" | विकास के उनमाद में सब सो चुके हैं गहरी नींद | यह कैसा विकास है जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है | कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे | कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है । प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है । यह निरंतर गलतियाँ करने वाला मानव जो खुद को बुद्धिजीवी मानता हैं और यह समझता है कि विज्ञान की आर में जो कुछ भी सत्यापित कर सके बस वही सत्य है और बाकि सब झूठ,  हमेशा भूल जाया करता है की उसकी बुद्धि भी सिमित है ।

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