मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

पूजा के पंडाल या पंडालों की पूजा?

पूजा के पंडाल या पंडालों की पूजा?

सोंच कर जबाब दें, हड़बड़ी नहीं है, दोबारा सोंचें फिर जबाब दें :
१) क्या हम माँ दुर्गा की पूजा करते हैं या पंडालों की, मूर्तियों की, मूर्तियों के सजावट की?
२) क्या आज के युवक युवतियाँ माँ दुर्गा के दर्शन को पंडालों में जाते हैं या वहाँ उमड़ती भीड़ को देखने जाते हैं, अपनी आँखों को सेंकने जाते हैं?
३) हम माँ दुर्गा को नमन करते हैं या वाहवाही करते हैं पंडाल निर्माण समितियों की?
४) एक तरह हम एक भूखे को खिलने की औकाद नहीं रखते और इस तरफ करोड़ों खर्च कर देते हैं। क्या हम सही में माता की भक्ति करते हैं?
५) पूजा आयोजक समीतियाँ क्या सचमुच समर्पित भाव से माँ दुर्गा का भव्य पूजन करती हैं या उन पैसों से अपना धनोपार्जन करती हैं?

हम मूर्खों को यह विचार तक नहीं आता कि माँ दुर्गा के भव्य दर्शन तो मन से ही हो सकते हैं इन पंडालों में क्या रखा है। बस बैठ जाओ एकाग्रचित्त होकर पढ़ जाओ और समझने की कोशिश करो जो लिखा गया है दुर्गा सप्तशती में, दुर्गा सप्तशती जो कि मार्कंडेय पुराण से लिया गया है। यही माँ दुर्गा का सर्वश्रेष्ठ चिंतन और सर्वश्रेष्ठ दर्शन होगा नवरात्र के दिनों में। इन ७०० श्लोकों से कुछ जानने की कोशिश करो कुछ ग्रहण करने की कोशिश करो।

खेलगांव ने तो सिर्फ एक कलमाड़ी को जना है यहाँ पंडालों के पीछे न जाने कितने छोटे-बड़े कलमाड़ी पैदा हो जाते हैं इन १० दिनों में। उन पैसों को समाज कल्याण में लगाया जाता तो और भी बेहतर होता। पर यही नियति है भारत की कि संसाधन पूरे भरे हैं पर लोग जागृत कम हैं, भ्रमित ज्यादा हैं, सुप्त ज्यादा हैं |

मैं खुद को यहाँ जागृत होने का दावा नहीं कर रहा, पर हाँ आप पर सुप्त या भ्रमित होने का संदेह जरूर कर रहा हूँ।

जय माँ दुर्गे, जय माँ भारती। आप सभी लोगों को नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ। माँ दुर्गा भारत की सुप्त चेतना को जागृत करें।    – प्रकाश ‘पंकज’


श्री श्री दुर्गा सप्तशती यहाँ से डाउनलोड करें : 
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4 टिप्‍पणियां:

  1. मै दुर्गा पूजा में माता के दर्शन के आलावा पंडाल देखने भी जाता हूँ और जाता रहूँगा।

    क्या आप सोचते हैं कि इन पंडालों पर लगाया गया पैसा सारा यूँ ही खर्च हो जाता है। भारतीय कारीगरों के श्रम से बनाए इन पंडालों को पैसे की बर्बादी बता देना उनके श्रम का अपमान है। पश्चिम बंगाल के कई जिलों के कलाकारों की रोजी रोटी दुर्गा माता की छवि व पंडाल की साज सज्जा से चलती है। लगता है उनका कल्याण आप समाज कल्याण में नहीं मानते।

    दशकों पूर्व पटना में दुर्गा पूजा महोत्सव में लाखों रुपये खर्च के देश के नामी कलाकार बुलाए जाते थे। वो भी आपके हिसाब से पैसे का अपव्यय ही होगा। पर बचपन में मुझे वो देश की सांगीतिक विरासत को सुनने समझने का एक मोका लगा था।

    दीवाली में दीये मोमबत्तियों ना जलाएँ बस एकाग्रचित्त हो कर मन की ज्योति जला दें दीपावली मन जाएगी।

    आपको इच्छा नहीं होती इस उत्सव में शामिल होने की। आपका हक़ है मत शामिल होइए। पर भारत की आम जनता जो श्रृद्धा भक्ति के साथ साथ इस मौके को एक उत्सव की तरह मनाती है उनकी खुशी मत छीनिए। आप जिन आम जनों की भलाई की बात कर रहे हैं वे ही आम जन दूर दूर से पैदल रिक्शे टंपो से इस पूजा और उसके उत्सव का अवलोकन करने आते हैं और खुशी खुशी जाते हैं। गरीबों के लिए इन मेलों का वही आकर्षण होता है जो आजकल के युवाओं के लिए मलचटीप्लेक्स का।

    मेरी बातें आपको आहत कर सकती हैं पर मुझे लगा कि इस विषय पर अपना स्पष्ट दृष्टिकोण दूँ।

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  2. @मनीष जी: धन्यबाद.. सोचने के लिए एक अलग दृष्टिकोण देने का जो मुझसे छूट रहा था ..

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  3. जो मैं कहना चाह रहा था वो मनीष जी ने बहुत अच्छे से कह दिया है.ये बात तो सच है कि पण्डालों में जाने का मुख्य उद्देश्य हमारा पूजा करना नहीं होता है..पूजा तो हम जीवन भर घर में करते ही हैं पर अगर ये सब ना किए जायें तो हमारे जीवन में रंग कैसे भरेंगे.!ये सब नहीं होगा तो त्योहार जो लोगों के नीरस जीवन में रस भरते हैं वो वो वो त्योहार सिर्फ नाम का रह जाएगा..और ये सब पैसे की बर्बादी नहीं है..आप तो विज्यान के छात्र हैं प्रकाश जी फिर आप कैसे गलती कर गए..उर्जा कभी नष्ट नहीं होती वो तो बस एक रुप से दूसरे रुप में बदल जाती है..यही नियम रुपए-पैसे के साथ भी तो लागू होता है..हाँ पूजा-समिति के लोग भले ही चंदे के पैसे को दारु-शराब में लगाकर उस पैसे का दुरुपयोग करते हैं..जरुरत है इन पैसे के सही उपयोग की...

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  4. एक बात और प्रकाश जी कि किसी साल दुर्गा पूजा का अपना समय कोलकाता में रहकर बिताएगा..मुझे पूर्ण विश्वास है कि इनकी कलाकारी आपका मन मोह लेगी और आप भगवान से यही कामना करेंगे कि ये परम्परा(पण्डाल बनाने की) कभी खत्म ना हो ताकि हरेक साल हमें इस अद्भुत कलाकारी को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे और भारतीयों की ये अनमोल कला और ज्यादा विकसित होती रहे...पूरे साल में यही एक समय होता है जब भारतीयों की कला प्रस्फुटित होती है.अगर ये सब ना होगा तो शायद भारतीयों की कला खत्म हो जायेगी.यही तो वो समय है जब चित्रकार अपनी चित्रकारी दिखाता है,कल्पना के महासागर में डुबकी लगाकर वहाँ से एक-से-एक अनमोल मोती लेकर आता है..कोई पण्डाल को पुरानी गुफा का रुप देता है कोई प्राचीन खण्डहर का कोई सुन्दर सा विशाल राजमहल का कोई जंगल का कोई प्राचीन ग्रामीण परिवेश का कोई हिमालय पर्वत कोई कुछ..कोई कुछ.....मैं तो यही चाहूंगा कि ये परम्परा और अच्छे तरीके से विकसित हो सके इसमें सरकार का सह्योग हो ताकि चंदे के पैसे का सदुपयोग हो और कलाकारों का जीवन-स्तर उपर उठे क्योंकि कलाकार गरीबी के कारण अब इस पेशे को छोड़ रहे हैं...

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