शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

संघर्ष बस अपना रहा, यह कर्म ही अपना रहा ।


न जीत ही अपनी रही, न हार  ही अपनी रही,
संग्राम बस अपना रहा, कर्मभूमि बस अपनी रही ।  
- प्रकाश 'पंकज'

रविवार, 22 अगस्त 2010

क्यों खग समान उन्मुक्तता अब शूल हुई है ?

समय के पिछले पन्नों पर कुछ भूल हुई है,
क्यों खग समान उन्मुक्तता अब शूल हुई है ?   
- प्रकाश 'पंकज'

बुधवार, 18 अगस्त 2010

ऐसे समाज के लिए तो हिटलर चाहिए गाँधी नहीं ।


ये दुनिया बड़ी ढकोसले वाली है
कुछ समझाओ तो कहेगी "पहले खुद करो फिर बोलो",
और जब कर दिखा बोलोगे तो कहेगी 
"तुम महान हो, सब तुम जैसे नहीं हो सकते"। 

ऐसे समाज के लिए तो हिटलर चाहिए गाँधी नहीं

- प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे ?

विकास के उन्माद में सब सो चुके हैं गहरी नींद।
कैसा है यह विकास जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है ?
कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे ?
कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है ?
प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है ?    - प्रकाश 'पंकज'

सोमवार, 9 अगस्त 2010

कमबख्त ये जमाना मेरी मार कैसे झेलेगा ?

इस ज़माने की मार तो हम सह ही लेंगे,
कमबख्त ये जमाना हमारी मार कैसे झेलेगा ?  

रविवार, 8 अगस्त 2010

धारा का निर्देशक


धारा में बहने वाले न बनो !
जागृत हो या भ्रमित हो धारा,
धारा में बहते जाओगे ।


धारा को मोड़ने वाले बनो !
जागृत हो या भ्रमित हो धारा, 
सही दिशा ले जाओगे । 

-प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 25 जून 2010

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता !

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता ,
सुवसनों से लाख सजा दो श्रंगार उसे नहीं कह सकता।  - पंकज

सोमवार, 21 जून 2010

ये दुनिया एक खन्जर है !

ओ दुनिया, मेरी अर्थी पर सर न झुकाना, रोना मत,
सर उठा कर फक्र से यूँ कहना,
मार डाला उस कमबख्त को जो कहता फिरता था - 
"ये दुनिया एक खन्जर है !"  
- पंकज

बुधवार, 16 जून 2010

भईया हम तो बिहारी हैं


भईया हम तो बिहारी हैं,

.. उगते सूरज से पहले 

डूबते सूरज को प्रणाम करते हैं,

अर्घ्य देते हैं !  

- प्रकाश 'पंकज'

रविवार, 2 मई 2010

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता

बुधवार, 24 मार्च 2010

फिर एक फिरंगी खेल के तम से ढकी शहादत भगत सिंह की

फिर एक फिरंगी खेल के तम से

ढकी शहादत भगत सिंह की । 

(२३ मार्च, २०१०) 
-प्रकाश पंकज

मंगलवार, 23 मार्च 2010

श्रद्धा-सुमन: भगत गुरु सुखदेव भजो तुम भगत गुरु सुखदेव !


 मानव धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
राष्ट्र धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
पुत्र धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
बन्धु धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

परिभाषा है
जागृति की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
है क्रांति की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
संग्राम की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
बलिदान की
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

प्रतारितों का त्राण है
...........भगत गुरु सुखदेव !
ज्वलित क्रांति का प्राण है
...........भगत गुरु सुखदेव !
स्वतंत्रता की आन है
...........भगत गुरु सुखदेव !
अमर-अमिट बलिदान है
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

-प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

हंस रही हैं होलिकायें जल रहा प्रह्लाद है , कैसा यह उन्माद है


हंस रही हैं होलिकायें जल रहा प्रह्लाद है , कैसा यह उन्माद है  - पंकज

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

मंदिर मस्जिद मिट जाने दो, मरघट उनको हो जाने दो


मंदिर मस्जिद मिट जाने दो, मरघट उनको हो जाने दो , 
तुम न रोपो आज शिवालय, शिव को धरती पर आने दो ,
फिर तांडव जग में मच जाने दो, चिर वसुधा को धँस जाने दो
- 'पंकज'

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

झूठी है यह "अमन की आशा", फिर काँटों भरी एक चमन की आशा - 'पंकज'

झूठी है यह "अमन की आशा",  फिर काँटों भरी एक चमन की आशा  

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

कैसे मन बसंत लिखूँ जब तपती धूप में जलता हूँ - पंकज

कैसे गीत बसंत लिखूँ जब तपती धूप में जलता हूँ 
- पंकज

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

तुम न चेते आज यदि तो दुरदिन ऐसा आएगा , धरा तपेगी व्योम तपेगा , तिल-तिल हर इन्सान मरेगा ।

मैं एक पेड़ हूँ जो खड़ा है एक वातानुकूलन यंत्र  (A.C) के वायु निकास के सामने, ऐसा लोग कहते हैं पर सच तो यह है की उस वायु निकास वाले डब्बे को मेरे सामने रखा गया है जो आग की तरह मुझे कब से झुलसाने की कोशिश कर रहा है । अकस्मात् ही कभी मैं रो पड़ता हूँ इन मनुष्यों के स्वभाव को देखकर जो स्वयं अपनी जाति के साथ - साथ हमारा भी अहित किये जा रहे हैं। अपने साथ वो हमें और बाकी के सारे जीवों को नष्ट करने पर तुले हैं। दो-दो आँखों के होते हुए भी वे अंधे हैं , या तो फिर वो वास्तविकता को देखना ही नहीं चाहते। वे यह क्षण भर के लिए भी क्यों नहीं सोचते कि भविष्य में वे धरती पर क्या छोड़ जायेंगे, क्या ये महल, ये अट्टालिकाएं और उनमें लगी वातानुकूलन यंत्र क्या इस धरती का सृजन कर सकेंगी? हमारी यह सुजला- सुफला धरती ऐसी रह पायेगी?
समझ नहीं आता मैं हंसूं या रोऊँ उस दिन कि दुर्दशा देख कर। बात है २५ मई २००९ की। एक चक्रवात के आने की सूचना मिली थी। बंगाल की खाड़ी से उठे एक चक्रवात जिसे लोगों ने (जरूर ही किसी मौसम विभाग के अधिकारी ने) 'आइला' नाम दिया। निस्संदेह ही यह पर्यावरण के असंतुलन का प्रभाव था। मुझे यह लग रहा था कि प्रकृति आज मानव के अत्याचार का उत्तर देने वाली है । जो प्रकृति सबका सृजन करती है , विनाश लाने वाली है ।
उस वातानुकूलित यंत्र के पंखे को देख कर मुझे कुछ भिन्न सा प्रतीत तो रहा था। जो मुझे कई महीनों से झुलसाने कि कोशिश कर रहा था उसका भी विनाश मुझे दिख रहा था। साथ ही इसका आनंद ले रहे लोग जो बंद कक्ष में बैठ बाहर के जलते वातावरण से अनभिज्ञ अपने कार्यों में रमे रहते हैं, उन सबकी दशा पर मुझे न जाने क्यों दया आने लगी। सारे लोग अपने अपने घर जल्द से जल्द पहुँचना चाह रहे थे। सड़कों कि हालत बिगड़ रही थी। मेरे जैसे कई पेड़ गिर रहे थे , न जाने क्या-क्या अभिशाप दे रहे होंगे मानव जाति को, या शायद उन्हें इस संकट से बचाने की याचना कर रहे हों ईश्वर से। क्योंकि हमलोग जीते तो है ही प्रकृति के लिए, प्रकृति के जीवों के लिए, पर मृत्यु के बाद भी चाहते हैं कि हमारा शव किसी अच्छे प्रयोजन में लाया जाये, किसी जिव को छत्रछाया मिल जाये हमारे शव से तो हमारी मृत्यु भी सफल हो जाती है ।
मैं बात कर रहा था उस दिन कि जब प्रकृति ने बंगाल के कुछ क्षेत्रों में विनाश का मन बना ली थी। उस दिन लोग भाग रहे थे गिरते हुए पेड़ों और खम्भों से सावधान। बसें नहीं मिल रही थी कि वो लोग अपने घर जा सकें, जो मिल रही थी वो भीड़ से ठसा-ठस। जिनके पास अपनी गाड़ी थी वो कुछ लोग को अपने साथ ले जा रहे थे पर कितनों को ले जाते। मैं तो प्रार्थना कर रहा था - "हे ईश्वर ! ये सारे चेहरे मेरी पहचान के हैं ऐसा न हो कि कोई मेरे जैसा भरी भरकम पेड़ उन गाड़ियों पर टूट कर गिरे और ना ही कोई खम्भा" - जिसका मुझे सबसे ज्यादा डर था। जो बसें लोगों के लिए जगह जगह (जहाँ नहीं रुकना चाहिए वहां भी) रुका करती थीं आज उन बसों पे चढ़ने के लिए मधुमक्खियों कि तरह लोग जुट जा रहे थे ।
लोगों को उस दिन भी यह याद नही आया होगा की यह सब उन्ही के कर्मों का परिणाम है । हमेशा की तरह आज भी वो अपना और सिर्फ अपना क्षण-स्थायी बचाव करने में लगे थे। पर अभी तक तो सिर्फ चक्रवात का संकेत मात्र मिला था। चक्रवात आना अभी बाकी था। यह प्रभाव सिर्फ चक्रवात आने से पहले का था। अति तीव्र वेग वायु जो शायद एक पतले दुबले आदमी को धकेल कर गिराने के लिए काफी था। आज बड़े अधिकारियों में और मज़दूरों में कुछ ज्यादा फर्क नही दिख रहा था। मुझे यह सोचकर संतुष्टि हो रही थी की शायद इनमें से कुछ-एक लोग तो समझेंगे पर्यावरण की महत्ता को और यह जानेंगे की ये सब उन्ही के कारण हो रहा है । पर्यावरण को असंतुलित करने का सारा श्रेय उनको ही जाता है ।पर शायद ही किसी ने सोचा होगा क्योंकि इतने व्यस्त लोगों के पास समय कहाँ होता है?
चक्रवात के आने का समय था शाम ५ बजे से शाम के ७ बजे तक और अभी सिर्फ ३ ही बजे थे। कुछ देर मैं भी अपनी हित की सोचने लगा। सोचा कितना अच्छा होता कि ये सारे पंखे जो कि ऊँचे ऊँचे इमारतों कि सारी गर्मी को समेट कर हमारे ऊपर आग कि तरह बरसते है । पूरे वातावरण को गर्मी से झुलसा कर अंदर इमारतों में बैठे लोगों को इतना तक ज्ञात नहीं होने देता कि यह गर्मी का मौसम है या सर्दी का। आज मेरा तन और मन इस वृष्टि से तृप्त हो रहा था पर मै वायु के प्रबल वेग से बुरी तरह झंझोरा जा रहा था। मैने सोचा आज अगर मै गिरा भी दिया जाऊँ इस पवन वेग से तो तो यह एक प्राकृतिक मौत होगी इन मनुष्यों के द्वारा झुलस-झुलस कर मरने से तो काफी अच्छा होगा - तृप्त हो मरूँगा
यह चक्रवात निसंदेह प्रकृति के कोप था। मेरे जैसे कई पेड़ गिर रहे थे और साथ में लगी दीवारों को भी गिरा रहे थे। जो लोग भीगने मात्र से डरते थे वो आज भीगने कि चिंता न कर सुरक्षित घर पहुँचने कि कोशिश में लगे थे। अचानक देखा पवन वेग तीव्र हुआ और मेरा शत्रु परास्त होता दिख रहा था। वो पंखे वाला डब्बा खुल कर छज्जे से निचे गिरने वाला था। और देखते देखते गिर भी गया और वह अपने ही पुर्जों में बिखर गया। मेरा खुश होना अपेक्षित था पर मानवों का यह दुर्दिन देख अपनी ख़ुशी को भी मै भूल बैठा और यह विनती करने लगा -"हे इश्वर! इन्हें सदबुध्धि दो। किसी न किसी माध्यम से इन्हें  सचेत करो उस महाप्रालय से जो कि आ सकता है पर्यावरण के असंतुलन से। हे इश्वर! इन्हें सचेत करो"। और इसी चिंतन में मैं खो गया और स्वयम को झंझावात को समर्पित कर परिणाम की चिंता छोड़ प्रार्थना करने लगा इन मतलबी इंसानों के लिए।
जब ध्यान टूटी तो देखा वायु-वेग पहले से तीव्र न हुआ था। क्षति हुई थी तो हमारे जैसे लम्बे खड़े पेडों की, उनसे लगे दीवारों की और कुछ टेलीफोन के खम्भों की और कुछ जीवों की जो मानव न थे और टूटने वाली दीवारों को अपना आश्रय समझ बैठे थे। हमारे आस पास के इलाको में ज्यादा क्षति न हुई थी। पर क्षति तो हमेशा की तरह सबसे ज्यादा हमारी ही जाति को हुई थी। कई पेड़ जड़ से उखड चुके थे। न जाने प्रकृति हमसे ही क्यों प्रतिशोध लेती है ?
सुन्दर वन में यह चक्रवात विनाश कर चुका था - वहां की सुन्दरता को कुचल चुका था। धरती जहाँ समृद्ध थी वहीँ पर विनाश का आमंत्रण था। जहाँ वन्य प्राणी सुरक्षित समझते है खुद को , जहाँ हरियाली हुआ करती है , जहाँ शीतल जल बहता है , जहाँ मनुष्य ने अपना वर्चस्व न जमाया था, उसी जगह को क्यूँ चुना गया विनाश के लिए। न जाने कितने हरे भरे गाँव डूब गये पर यहाँ Saltlake में ज्यादा कुछ बर्बादी न हुई थी। पर वो अग्नि वायु उगलने वाला डिब्बा मेरे सामने न था। खुश तो था पर मुझे नही लगा कि किसी ने सबक ली होगी। हलकी चोट से भला बहरे क्यूँ जागने लगे। जागृति तो प्रलय लाएगा। वृक्ष-हीन, जल-विहीन, उर्जा-हीन, पशु-पंक्षी-विहिन धरती, वृहस्पति कि तरह तपता हुआ वायुमंडल। या फिर पिघलता हुआ हिमालय, उफान मारती नदियाँ और फिर धीरे-धीरे जल मग्न होता भूभाग। पर उस समय जागने वाले न होंगे, न जगाने वाले होंगे, बचाने वाले नहीं बचेंगे या फिर यूँ कहिये कि समय न होगा अपनी गलतियों को सुधारने का। धरती फिर एक बार वीरान होगी, प्राणी-विहीन होगी। "हे प्रभु! कम से कम इन्हें ऐसा भयानक स्वपन तो दिखा"। विकास के उनमाद में सब सो चुके हैं गहरी नींद। यह कैसा विकास है जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है । कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे। कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है । प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है । यह निरंतर गलतियाँ करने वाला मानव जो खुद को बुद्धिजीवी मानता हैं और यह समझता है कि विज्ञान की आर में जो कुछ भी सत्यापित कर सके बस वही सत्य है और बाकि सब झूठ,  हमेशा भूल जाया करता है की उसकी बुद्धि भी सिमित है ।
अगली सुबह जो देखा वो ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि इनसे मेरी अपेक्षा भी यही थी । मैं जानता था कि कल फिर से सिर्फ एक 3 घन फीट का आदमी ( एक सामान्य मनुष्य का आयतन = 6×1×0.5 घन फीट) , 300 घन फीट (एक साधारण कार का आयतन 6×10×5 घन फीट) की गाड़ी में बैठ कर प्रदुषण फैलाएगा, प्रकृति के मुख पर कालीख मलेगा ।  जिम जाकर अपनी उर्जा को जरूर बर्बाद करेगा पर आधे किलोमीटर कि दूरी भी पैदल नहीं तय करेगा क्योंकि गाड़ी है न , बगल कि मंडी  से सब्जी भी गाड़ी में ही लायेगा  । बसें हैं काफी शहर में  फिर भी अपनी गाड़ी में पेट्रोल बर्बाद कर पर्यावरण को चौतरफा नुक्सान करेगा । खुद तो वातानुकूलित कमरे में रहेंगे और गर्म तपती वायु को बहार प्रवाहित करेंगे क्योंकि उनका छोटा सा कमरा उनके लिए सुखदाई हो भले ही बाहर प्राणी जल मरें । उन्हें क्या ?
दलील देंगे अपने पैसों का पेट्रोल जला रहे हैं, बजली के लिए भी पैसे दे रहे हैं , अपने पैसों से A.C. लगा रहे हैं । हुह्ह  ....थू ... कितने नीच हो तुम और तुम्हारी सोंच ।  जिन्हें संवारना नहीं आता उन्हें बिगारते क्यों हो ? और तुम इसी को जीना भी बोलते हो , हाह , हे मुर्ख जरा विस्तृत कर देख यही तेरा विनाश है , प्रलय-आमंत्रण है !
अगले दिन दिनचर्या वही है जो पहले थी । और अचानक दिखा मुझे एक दानवरूपी-मानव या मानवरूपी-दानव जो भी कहिये मेरे लिए वह राक्षस ही था क्योंकि उससे मेरी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हो रही थी । वह  लगा गया एक नया यन्त्र जो फिर से उगलने लगा मुझपर आग । मैं तड़प रहा हूँ आज तक । मैं अडिग हूँ , इस स्थान से हट नहीं सकता , मैं अडिग हूँ अपने प्रण के प्रति जो मैंने लिया है प्राणियों को प्राणवायु देने का, और इसी हट का मुझे दण्ड मिल रहा है । मैं सच कहता हूँ निर्दोष हूँ , पर सुन हे दुष्ट अपराधी मानव -
"तुम न चेते आज यदि तो  -     दुरदिन ऐसा आएगा ,
 धरा तपेगी व्योम तपेगा , तिल-तिल हर इन्सान मरेगा ।" 
       – प्रकाश ‘पंकज’

धरा तपेगी व्योम तपेगा, तिल-तिल हर इन्सान मरेगा - २

कृपया इसका पहला भाग भी पढ़ें ( http://pankaj-writes.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html )

जब ध्यान टूटी तो देखा वायु-वेग पहले से तीव्र न हुआ था | क्षति हुई थी तो हमारे जैसे लम्बे खड़े पेडों की, उनसे लगे दीवारों की और कुछ टेलीफोन के खम्भों की और कुछ जीवों की जो मानव न थे और टूटने वाली दीवारों को अपना आश्रय समझ बैठे थे | हमारे आस पास के इलाको में ज्यादा क्षति न हुई थी | पर क्षति तो हमेशा की तरह सबसे ज्यादा हमारी ही जाति को हुई थी | कई पेड़ जड़ से उखड चुके थे | न जाने प्रकृति हमसे ही क्यों प्रतिशोध लेती है ?

सुन्दर वन में यह चक्रवात विनाश कर चुका था - वहां की सुन्दरता को कुचल चुका था | धरती जहाँ समृद्ध थी वहीँ पर विनाश का आमंत्रण था | जहाँ वन्य प्राणी सुरक्षित समझते है खुद को , जहाँ हरियाली हुआ करती है , जहाँ शीतल जल बहता है, जहाँ मनुष्य ने अपना वर्चस्व न जमाया था, उसी जगह को क्यूँ चुना गया विनाश के लिए | न जाने कितने हरे भरे गाँव डूब गये पर यहाँ Saltlake में ज्यादा कुछ बर्बादी न हुई थी | पर वो अग्नि वायु उगलने वाला डिब्बा मेरे सामने न था | खुश तो था पर मुझे नही लगा कि किसी ने सबक ली होगी | हलकी चोट से भला बहरे क्यूँ जागने लगे | जागृति तो प्रलय लाएगा | वृक्ष-हीन, जल-विहीन, उर्जा-हीन, पशु-पंक्षी-विहिन धरती, वृहस्पति कि तरह तपता हुआ वायुमंडल | या फिर पिघलता हुआ हिमालय, उफान मारती नदियाँ और फिर धीरे-धीरे जल मग्न होता भूभाग | पर उस समय जागने वाले न होंगे, न जगाने वाले होंगे, बचाने वाले नहीं बचेंगे या फिर यूँ कहिये कि समय न होगा अपनी गलतियों को सुधारने का | धरती फिर एक बार वीरान होगी, प्राणी-विहीन होगी | "हे प्रभु! कम से कम इन्हें ऐसा भयानक स्वपन तो दिखा" | विकास के उनमाद में सब सो चुके हैं गहरी नींद | यह कैसा विकास है जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है | कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे | कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है । प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है । यह निरंतर गलतियाँ करने वाला मानव जो खुद को बुद्धिजीवी मानता हैं और यह समझता है कि विज्ञान की आर में जो कुछ भी सत्यापित कर सके बस वही सत्य है और बाकि सब झूठ,  हमेशा भूल जाया करता है की उसकी बुद्धि भी सिमित है ।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

वन्दे मातरम रिंग-टोन - आनंद मठ


http://www.esnips.com/doc/f858febb-6134-444f-b102-d21b8a9f2050/Vande-Mataram-Ringtone

नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम....... वन्दे मातरम !

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

दो जर्जर बाँसों की सीढी

दो बाँसों की बनी है यह सीढी ,
क्या है? तोड़ डालो ।
अच्छी खासी ऊंचाई तक पहुँच ही गए हो
और वापस जाने का विचार तक नही लाना है मन में ।
व्यर्थ ही इस सीढी को देखकर बार-बार तुम
संकोच करोगे आगे बढ़ने से,
ऊपर देखोगे नजरें झुकाकर,
जयघोष कर भी पराजित समझोगे ।
उनकी टकटकी लगाती निगाहों को देख व्यर्थ ही,
तुम्हे बार-बार अपने बचपन में जाना होगा,

जहाँ तम्हें चलने से ज्यादा गिरने की आदत थी,
और दो हरे भरे चेहरे तम्हें चलने को प्रेरित करते थे।
खाने से ज्यादा भूखे रहने में मजा आता था,
बिना उद्देश्य के बस खेलना पसंद था,
पर उन दो चेहरों को इनसे शायद इर्ष्या होती थी,
तम्हारे भूख से, चाहते नही थे की तुम क्षुधा का स्वाद तक भी लो,
तम्हारे निर्लक्ष्य जीवन तक को उन्हों ने बरबाद कर दिया ।


अरे छोडो इन बातों को, आगे देखो !
देखो कोई तुमसे पहले अगली मंजिल तक न जा पहुंचे,
तोड़ दो इस पुरानी सीढी को व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद कर रहे हो ।
काम नही आने वाली यह सीढी अब तुम्हारे।
न हीं इनकी हड्डियों में वो बल रहा की तुम्हे सहारा दे सके,
तम्हें और ऊपर उठा सके अगली मंजिल तक ।
इनका भार अब तुम्हे न उठाना परे,
देखो भाग चलो !

भूल कर भी अब इनका सहारा मत लेना,
ख़ुद तो इन्हे टूटना ही है, कहीं तुम्हे न गिरा दें ।
आगे बढो! ऊपर चढो ऊपर!
मत देखो नीचे इन जर्जर बाँसों को ।
जरा भी न विचारो इन्हें !
तुम निकले हो विश्व जीतने,
देखो बंध न जाए तुम्हारे पैरों से ये
उड़ न पाओगे तुम कभी,
पिछड़ जाओगे भीड़ में ,
खो एक जैसी शक्लों की भीड़ में,
पहचानेगा नही कोई तुम्हे,
इन दो बूढे बाँसों के सिवा ।
अरे ! देखो...ये क्या?
तुमसे पीछे चलने वाले आगे जा रहे हैं,
विलम्ब न करो मिटा दो अस्तित्व इनका ।

क्या सोचते हो?
छोड़ दोगे इन्हे अपनी हाल पर?
बादल गरज रहे हैं , वर्षा के जल से फूल जाएँगे,
फ़िर क्या धूप भी है न.. इन्हे सुखा देगी।
और ये अकेले तो नहीं एक दूसरे की देखभाल कर सकते हैं ।
एक टूटेगा तो भी क्या?
इनके पायदान के जोड़ इतने तो मजबूत है कि
यह सीढी न टूटेगी ! यह पीढी न टूटेगी !
टूट जाए सारे बंधन, यह बंधन न टूटेगा ।
बहुत ढीठ हैं जानता हूँ ।
हाँ , दोनों टूट जाएँ तब की बात दूसरी है ।
पर यह तो होना ही है न?
परे रहने देता हूँ इन्हे यहीं ।

न ! न ! न ! ऐसी भूल न कर !
निकल न पायेगा इस भंवर से तू ।
कभी तो सोने जाओगे,
सोने नहीं देंगी तुम्हें ये सजल ऑंखें,

इन्हीं रास्तों पर
नभ को चादर मान परे रहेंगे ,
राह देखते एक कर्मनिष्ठ की ।
किचरों में सने करते रहेंगे विनतियाँ,
पंक को न चाहिए कुछ अपने इष्टदेव से,
बस इतनी ही कृपा हम मांगते त्रिदेव से,
शौर्य दे इतना उसे , पूर्ण हो मनोकामना !
हम राह देख हैं रहे, अपने श्रवण कुमार की।

.......... पर तुम्हारे कामनाओं की भी कोई सीमा है ?
-प्रकाश 'पंकज'
यह कविता अनुभूति पर भी प्रकाशित: http://www.anubhuti-hindi.org/nayihawa/p/prakash_pankaj/index.htm