गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सम्मान पाने के लिए सम्मान देना सीखें

यदि आप खुद को मुझसे छोटा समझते हैं,
मैं आपसे बहुत छोटा हूँ
यदि आप मुझसे बड़े होने का दम्भ भरते हैं,
तो मैं आपसे भी बड़ा हूँ।  – प्रकाश ‘पंकज’

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

अंगद सा हमने पद रोपा

ले नाम सियावर रामचन्द्र,
अंगद सा हमने पद रोपा।
है पूत कहीं ऐसा जग में
जो पाँव हमारे डिगा सके?  
 –प्रकाश ‘पंकज’


सन्दर्भ: अंगद की आस्था और विश्वास

शनिवार, 20 नवंबर 2010

वो क्या थी नभ की छत – प्रकाश ‘पंकज’

वो क्या क्षुधा का स्वाद था?
वो क्या थी नभ की छत?

रविवार, 14 नवंबर 2010

"बाल मजदूरी कानून".. किसका अभिशाप? किसका वरदान?

"बाल-मजदूरी कानून".. किसका अभिशाप? किसका वरदान?

गजब के घटिया कानून है देश के:

एक समृद्ध परिवार का बच्चा जिसकी परवरिश बड़े अच्छे ढंग से हो रही है, अपने स्कूल और पढाई छोड़ कर टी.वी. सीरियल या फिल्म में काम करता है सिर्फ और सिर्फ अपनी और अपने परिवार की तथाकथित ख्याति के लिए तो यह "बाल-मजदूरी" नहीं होती। वेश्यावृति करने वाली मीडिया भी इसे प्रोत्साहित करती है।

वहीँ अगर कोई बच्चा अपने और अपने परिवार वालों का पेट पालने के लिए प्लेट धो लेता है तो यह "बाल-मजदूरी" हो जाती है और वहीँ यह दोगली मीडिया उस बात को उछाल-उछाल कर कान पका देती है।

.. हमारे यहाँ ऐसे लोगों की भी कमी बिल्कुल नहीं है  जो कहेंगे कि वे टी.वी. शो वाले प्रतिभा को प्रोत्साहित कर रहे हैं। ऐसे लोगों को मेरा एक ही जबाब है अगर आपके बच्चों का टी.वी. शो में नाचना गाना प्रतिभा हो सकती है तो हरेक शाम अपनी और अपने घरवालों की रोटी जुगारने की कोशिश में उन बच्चों की प्रतिभा कहीं से भी कम नहीं है, बल्कि ज्यादा ही है। और,  अगर आप उनके सामाजिक विकास और शैक्षणिक विकास की बात करें तो दोनों जगहों पर एक हीं बात सामने आती है कि वे सभी अनिवार्य शिक्षा से दूर हो रहे हैं। जुलाहे का बच्चा तो सुविधा नहीं मिलने के कारण शिक्षा में पिछड़ रहा है पर आपका बच्चा तो सुविधाओं के बावजूद उस धारा में बह रहा है जो शैक्षणिक विकास से बिलकुल अलग है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी एक "कबाड़ पीढ़ी" पैदा होगी।

यहाँ मै कानून को लाचार ही नहीं उन लोगों का नौकर भी समझूंगा जिनके पास पैसा है, शक्ति है, वर्चस्व है। यही लोग कानून को कुछ इस तरह से बनाते है कि जिनके पास ऐसी समृद्धि है वो इससे निकल सकते हैं और जिनके पास नहीं है वो पिसे जाते हैं इन कानूनी दैत्य-दन्तों द्वारा।

अगर कोई होटल-ढाबे वाला किसी को जीविका देने के लिए "बाल-मजदूरी" करवाने का दोषी हो सकता है तो आज हम सारे लोग जो बड़े मजे से टी.वी. के सामने ठहाके मारते हैं, वाह-वाह करते है, मेरी नज़र में वो सब दोषी हैं "बाल-मजदूरी" करवाने के।
... कानून माने या न माने।
... आप माने या न मानें।
... और मुझे यह भी मालूम है कि अकेले सिर्फ मेरे मानने से भी कुछ नहीं होने को है।

और अंत में इतना हीं कहूँगा कि यदि आपमें अब भी समाज के प्रति थोड़ी नैतिक जिम्मेदारी बची हो तो इसपर विचारें और ऐसे टी.वी. सीरियलों, फिल्मों का "प्रतिकार" करें, सामाजिक बहिष्कार करें, उनका सहभागी न बनें, किन्नरों जैसे तालियाँ न पीटें।

चलता हूँ और आपके लिए कुछ लिंक छोड़ जाता हूँ। धन्यवाद!

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

हम उगते सूर्य से पहले डूबते सूर्य को पूजते हैं।


भईया हम तो बिहारी हैं,
उगते सूर्य से पहले
डूबते सूर्य को पूजते हैं,
अर्घ्य देते हैं,

धन्यबाद करते हैं !

है किसी और में ऐसा साहस, इतनी विनम्रता ?  

अगर हो तो अति सुंदर।  

जिसने दिन भर हमें राह दिखाया, चलने की शक्ति दी, मनोबल कम न हो ऐसी उर्जा दी, उनकी पूजा हम पहले करते हैं, उसे धन्यबाद हम पहले करते हैं 
और बाद में उनकी पूजा करते हैं जो हमारे आगे की दिनचर्या में सहायक होंगे ..

.. उगते सूरज को तो सभी पूजेंगे इसमें कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि उनके बिना दिनचर्या नहीं चलने वाली, यह एक मजबूरी है ..
पर महान वही है जो उस सीढ़ी को कभी न भूले जिसपर चढ वो अपनी मंजिल की ओर बढ़ता है और उनके प्रति श्रद्धा रखता है ..

... यह बात यहीं तक नहीं रह जाती बल्कि अपने माता-पिता के प्रति भी यही भाव होना चाहिए
उन डूबते हुए सूर्य को उनके बच्चे कभी न भूलें
हे समदर्शी सूर्यदेव! हमें कुछ देना न देना पर इतनी बौद्धिक क्षमता जरूर देना कि हर डूबते सूर्य के योगदान को समझें, उनका आदर करें, उनके प्रति श्रद्धा रखें और किसी भी ढलते सूर्य को अकेला न छोडें ।

आपको और आपके परिवार को छठ महापर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!

बुधवार, 10 नवंबर 2010

'पंकज-पत्र' पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

'पंकज-पत्र' पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

पिछले कुछ दिनों से मेरे मन की स्थिति दयनीय थी। चाह रहा था कुछ लिखना पर लिख नहीं पा रहा था। करुण स्थिति में लिखी गई यह कविता समाज के कुछ ऐसे कुख्यात प्रकार के लोगों को समर्पित है जो की "निम्न" हैं :
अनुच्छेद।।१।। कलमाड़ी, अशोक चव्हाण, ए. राजा और उन जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए।
अनुच्छेद।।२।। आई.आई.पी.एम के चोटी वाले अरिंदम जी जैसे अन्य शिक्षा के व्यापारियों के लिए। 
अनुच्छेद।।३।। गिलानी, अरुंधती जैसे अन्य देशद्रोहियों और राष्ट्र-विरोधियों के लिए जो देश की अखंडता पर चोट करते हैं।
कविता का पता (जरूर पढ़ें): 'पंकज-पत्र' पर पंकज की कुछ कविताएँ: प्रतिकार

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

मुझे हर चीज़ में डंडा करने की बुरी आदत है

लोग कहते हैं,
मुझे हर चीज़ में डंडा करने की बुरी आदत है।

मैं सोंचता हूँ,
डंडे से तो कुछ बदला नहीं,
अबकी बाँस उठाकर कोशिश करूँ।

*चित्र: गूगल साभार 

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

संकल्पों के दीप जलाता कदम बढ़ाता चल

संकल्पों के दीप जलाता कदम बढ़ाता चल,
वक्ष दबे बारूदों से खुद राह बनाता चल।  

– प्रकाश 'पंकज'


ये बारूद जो सुलग रहे हैं हम जैसों के भीतर, न जाने कब फूटेंगे,
फूटेंगे भी या फिर बस फुसफुसा कर ही रह जाएँगे - ये भी किसे पता?
... कोई बात नहीं,
आज तो कम से कम कुछ कानफोड़ू धमाके कर के बहरों को सुना देने का भ्रम और मजबूत कर लें!
 
शुभ पटाखोत्सव! ;)
शुभ दीपोत्सव!
आपको  और आपके परिवार को प्रकाश-पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !

ऐसा दिया जलाएँ मन में, जग उजियारा होए!

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

जीना एक आडम्बर साला मरना भी पाखंड !

जीना एक आडम्बर साला
मरना भी पाखंड !  

 – प्रकाश ‘पंकज’



अनुपयुक्त शब्द प्रयोग के लिए क्षमा पर रोक नहीं पाया।
चित्र: गूगल देव साभार

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

फिर भी न जाने कैसे हम निर्लज्जों को राष्ट्र पर गर्व है

हमारे हिन्दुस्तान में

हिन्दी कम जानना या नहीं जानना बड़े गर्व की बात है,

पर अंग्रेजी कम जानना एक शर्म की बात है

और अंग्रेजी नहीं जानना डूब मरने की बात है।

... फिर भी न जाने कैसे हम निर्लज्जों को राष्ट्र पर गर्व है

– प्रकाश 'पंकज'

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

पूजा के पंडाल या पंडालों की पूजा?

पूजा के पंडाल या पंडालों की पूजा?

सोंच कर जबाब दें, हड़बड़ी नहीं है, दोबारा सोंचें फिर जबाब दें :
१) क्या हम माँ दुर्गा की पूजा करते हैं या पंडालों की, मूर्तियों की, मूर्तियों के सजावट की?
२) क्या आज के युवक युवतियाँ माँ दुर्गा के दर्शन को पंडालों में जाते हैं या वहाँ उमड़ती भीड़ को देखने जाते हैं, अपनी आँखों को सेंकने जाते हैं?
३) हम माँ दुर्गा को नमन करते हैं या वाहवाही करते हैं पंडाल निर्माण समितियों की?
४) एक तरह हम एक भूखे को खिलने की औकाद नहीं रखते और इस तरफ करोड़ों खर्च कर देते हैं। क्या हम सही में माता की भक्ति करते हैं?
५) पूजा आयोजक समीतियाँ क्या सचमुच समर्पित भाव से माँ दुर्गा का भव्य पूजन करती हैं या उन पैसों से अपना धनोपार्जन करती हैं?

हम मूर्खों को यह विचार तक नहीं आता कि माँ दुर्गा के भव्य दर्शन तो मन से ही हो सकते हैं इन पंडालों में क्या रखा है। बस बैठ जाओ एकाग्रचित्त होकर पढ़ जाओ और समझने की कोशिश करो जो लिखा गया है दुर्गा सप्तशती में, दुर्गा सप्तशती जो कि मार्कंडेय पुराण से लिया गया है। यही माँ दुर्गा का सर्वश्रेष्ठ चिंतन और सर्वश्रेष्ठ दर्शन होगा नवरात्र के दिनों में। इन ७०० श्लोकों से कुछ जानने की कोशिश करो कुछ ग्रहण करने की कोशिश करो।

खेलगांव ने तो सिर्फ एक कलमाड़ी को जना है यहाँ पंडालों के पीछे न जाने कितने छोटे-बड़े कलमाड़ी पैदा हो जाते हैं इन १० दिनों में। उन पैसों को समाज कल्याण में लगाया जाता तो और भी बेहतर होता। पर यही नियति है भारत की कि संसाधन पूरे भरे हैं पर लोग जागृत कम हैं, भ्रमित ज्यादा हैं, सुप्त ज्यादा हैं |

मैं खुद को यहाँ जागृत होने का दावा नहीं कर रहा, पर हाँ आप पर सुप्त या भ्रमित होने का संदेह जरूर कर रहा हूँ।

जय माँ दुर्गे, जय माँ भारती। आप सभी लोगों को नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ। माँ दुर्गा भारत की सुप्त चेतना को जागृत करें।    – प्रकाश ‘पंकज’


श्री श्री दुर्गा सप्तशती यहाँ से डाउनलोड करें : 
Sri-Sri-Durga-Saptshati-Sanskrit-Hindi
Sri-Sri-Durga-Sapt...
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मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

भरत-पुत्रों की चेतावनी

दुनिया वाले सुन लें ...
भरत-पुत्रों की सहनशीलता का तटबंध जब टूटता है,
वे भीम समान मानवता भूल रक्तपिपासु हो जाते है,
शत्रु-वक्ष की रुधिर-चासनी पी कर ही अघाते हैं ।
 ... कोशिश हो ऐसा रक्तिम इतिहास दोहराया न जाये ।   
– प्रकाश ‘पंकज’

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

कोई न जीता कोई न हारा, बहने दी हमने न्याय की धारा

कोई न जीता कोई न हारा, 
बहने दी हमने न्याय की धारा,
आज चमकता दीख रहा है, 
लोकतंत्र का एक सितारा प्रकाश 'पंकज'

रविवार, 26 सितंबर 2010

वो राधा-किशन का प्रेम कहाँ? जगती जिसको दोहरा न सकी।

प्रेम गीत एक लिखने को
फिर कलम हमारी चल न सकी,
वो राधा-किशन का प्रेम कहाँ
जगती जिसको दोहरा न सकी? - प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

संघर्ष बस अपना रहा, यह कर्म ही अपना रहा ।


न जीत ही अपनी रही, न हार  ही अपनी रही,
संग्राम बस अपना रहा, कर्मभूमि बस अपनी रही ।  
- प्रकाश 'पंकज'

रविवार, 22 अगस्त 2010

क्यों खग समान उन्मुक्तता अब शूल हुई है ?

समय के पिछले पन्नों पर कुछ भूल हुई है,
क्यों खग समान उन्मुक्तता अब शूल हुई है ?   
- प्रकाश 'पंकज'

बुधवार, 18 अगस्त 2010

ऐसे समाज के लिए तो हिटलर चाहिए गाँधी नहीं ।


ये दुनिया बड़ी ढकोसले वाली है
कुछ समझाओ तो कहेगी "पहले खुद करो फिर बोलो",
और जब कर दिखा बोलोगे तो कहेगी 
"तुम महान हो, सब तुम जैसे नहीं हो सकते"। 

ऐसे समाज के लिए तो हिटलर चाहिए गाँधी नहीं

- प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे ?

विकास के उन्माद में सब सो चुके हैं गहरी नींद।
कैसा है यह विकास जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है ?
कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे ?
कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है ?
प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है ?    - प्रकाश 'पंकज'

सोमवार, 9 अगस्त 2010

कमबख्त ये जमाना मेरी मार कैसे झेलेगा ?

इस ज़माने की मार तो हम सह ही लेंगे,
कमबख्त ये जमाना हमारी मार कैसे झेलेगा ?  

रविवार, 8 अगस्त 2010

धारा का निर्देशक


धारा में बहने वाले न बनो !
जागृत हो या भ्रमित हो धारा,
धारा में बहते जाओगे ।


धारा को मोड़ने वाले बनो !
जागृत हो या भ्रमित हो धारा, 
सही दिशा ले जाओगे । 

-प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 25 जून 2010

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता !

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता ,
सुवसनों से लाख सजा दो श्रंगार उसे नहीं कह सकता।  - पंकज

सोमवार, 21 जून 2010

ये दुनिया एक खन्जर है !

ओ दुनिया, मेरी अर्थी पर सर न झुकाना, रोना मत,
सर उठा कर फक्र से यूँ कहना,
मार डाला उस कमबख्त को जो कहता फिरता था - 
"ये दुनिया एक खन्जर है !"  
- पंकज

बुधवार, 16 जून 2010

भईया हम तो बिहारी हैं


भईया हम तो बिहारी हैं,

.. उगते सूरज से पहले 

डूबते सूरज को प्रणाम करते हैं,

अर्घ्य देते हैं !  

- प्रकाश 'पंकज'

रविवार, 2 मई 2010

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता

दो लिंगों के आलिंगन को प्यार नहीं मैं कह सकता

बुधवार, 24 मार्च 2010

फिर एक फिरंगी खेल के तम से ढकी शहादत भगत सिंह की

फिर एक फिरंगी खेल के तम से

ढकी शहादत भगत सिंह की । 

(२३ मार्च, २०१०) 
-प्रकाश पंकज

मंगलवार, 23 मार्च 2010

श्रद्धा-सुमन: भगत गुरु सुखदेव भजो तुम भगत गुरु सुखदेव !


 मानव धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
राष्ट्र धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
पुत्र धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
बन्धु धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

परिभाषा है
जागृति की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
है क्रांति की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
संग्राम की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
बलिदान की
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

प्रतारितों का त्राण है
...........भगत गुरु सुखदेव !
ज्वलित क्रांति का प्राण है
...........भगत गुरु सुखदेव !
स्वतंत्रता की आन है
...........भगत गुरु सुखदेव !
अमर-अमिट बलिदान है
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

-प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

हंस रही हैं होलिकायें जल रहा प्रह्लाद है , कैसा यह उन्माद है


हंस रही हैं होलिकायें जल रहा प्रह्लाद है , कैसा यह उन्माद है  - पंकज

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

मंदिर मस्जिद मिट जाने दो, मरघट उनको हो जाने दो


मंदिर मस्जिद मिट जाने दो, मरघट उनको हो जाने दो , 
तुम न रोपो आज शिवालय, शिव को धरती पर आने दो ,
फिर तांडव जग में मच जाने दो, चिर वसुधा को धँस जाने दो
- 'पंकज'

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

झूठी है यह "अमन की आशा", फिर काँटों भरी एक चमन की आशा - 'पंकज'

झूठी है यह "अमन की आशा",  फिर काँटों भरी एक चमन की आशा  

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

कैसे मन बसंत लिखूँ जब तपती धूप में जलता हूँ - पंकज

कैसे गीत बसंत लिखूँ जब तपती धूप में जलता हूँ 
- पंकज

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

तुम न चेते आज यदि तो दुरदिन ऐसा आएगा , धरा तपेगी व्योम तपेगा , तिल-तिल हर इन्सान मरेगा ।

मैं एक पेड़ हूँ जो खड़ा है एक वातानुकूलन यंत्र  (A.C) के वायु निकास के सामने, ऐसा लोग कहते हैं पर सच तो यह है की उस वायु निकास वाले डब्बे को मेरे सामने रखा गया है जो आग की तरह मुझे कब से झुलसाने की कोशिश कर रहा है । अकस्मात् ही कभी मैं रो पड़ता हूँ इन मनुष्यों के स्वभाव को देखकर जो स्वयं अपनी जाति के साथ - साथ हमारा भी अहित किये जा रहे हैं। अपने साथ वो हमें और बाकी के सारे जीवों को नष्ट करने पर तुले हैं। दो-दो आँखों के होते हुए भी वे अंधे हैं , या तो फिर वो वास्तविकता को देखना ही नहीं चाहते। वे यह क्षण भर के लिए भी क्यों नहीं सोचते कि भविष्य में वे धरती पर क्या छोड़ जायेंगे, क्या ये महल, ये अट्टालिकाएं और उनमें लगी वातानुकूलन यंत्र क्या इस धरती का सृजन कर सकेंगी? हमारी यह सुजला- सुफला धरती ऐसी रह पायेगी?
समझ नहीं आता मैं हंसूं या रोऊँ उस दिन कि दुर्दशा देख कर। बात है २५ मई २००९ की। एक चक्रवात के आने की सूचना मिली थी। बंगाल की खाड़ी से उठे एक चक्रवात जिसे लोगों ने (जरूर ही किसी मौसम विभाग के अधिकारी ने) 'आइला' नाम दिया। निस्संदेह ही यह पर्यावरण के असंतुलन का प्रभाव था। मुझे यह लग रहा था कि प्रकृति आज मानव के अत्याचार का उत्तर देने वाली है । जो प्रकृति सबका सृजन करती है , विनाश लाने वाली है ।
उस वातानुकूलित यंत्र के पंखे को देख कर मुझे कुछ भिन्न सा प्रतीत तो रहा था। जो मुझे कई महीनों से झुलसाने कि कोशिश कर रहा था उसका भी विनाश मुझे दिख रहा था। साथ ही इसका आनंद ले रहे लोग जो बंद कक्ष में बैठ बाहर के जलते वातावरण से अनभिज्ञ अपने कार्यों में रमे रहते हैं, उन सबकी दशा पर मुझे न जाने क्यों दया आने लगी। सारे लोग अपने अपने घर जल्द से जल्द पहुँचना चाह रहे थे। सड़कों कि हालत बिगड़ रही थी। मेरे जैसे कई पेड़ गिर रहे थे , न जाने क्या-क्या अभिशाप दे रहे होंगे मानव जाति को, या शायद उन्हें इस संकट से बचाने की याचना कर रहे हों ईश्वर से। क्योंकि हमलोग जीते तो है ही प्रकृति के लिए, प्रकृति के जीवों के लिए, पर मृत्यु के बाद भी चाहते हैं कि हमारा शव किसी अच्छे प्रयोजन में लाया जाये, किसी जिव को छत्रछाया मिल जाये हमारे शव से तो हमारी मृत्यु भी सफल हो जाती है ।
मैं बात कर रहा था उस दिन कि जब प्रकृति ने बंगाल के कुछ क्षेत्रों में विनाश का मन बना ली थी। उस दिन लोग भाग रहे थे गिरते हुए पेड़ों और खम्भों से सावधान। बसें नहीं मिल रही थी कि वो लोग अपने घर जा सकें, जो मिल रही थी वो भीड़ से ठसा-ठस। जिनके पास अपनी गाड़ी थी वो कुछ लोग को अपने साथ ले जा रहे थे पर कितनों को ले जाते। मैं तो प्रार्थना कर रहा था - "हे ईश्वर ! ये सारे चेहरे मेरी पहचान के हैं ऐसा न हो कि कोई मेरे जैसा भरी भरकम पेड़ उन गाड़ियों पर टूट कर गिरे और ना ही कोई खम्भा" - जिसका मुझे सबसे ज्यादा डर था। जो बसें लोगों के लिए जगह जगह (जहाँ नहीं रुकना चाहिए वहां भी) रुका करती थीं आज उन बसों पे चढ़ने के लिए मधुमक्खियों कि तरह लोग जुट जा रहे थे ।
लोगों को उस दिन भी यह याद नही आया होगा की यह सब उन्ही के कर्मों का परिणाम है । हमेशा की तरह आज भी वो अपना और सिर्फ अपना क्षण-स्थायी बचाव करने में लगे थे। पर अभी तक तो सिर्फ चक्रवात का संकेत मात्र मिला था। चक्रवात आना अभी बाकी था। यह प्रभाव सिर्फ चक्रवात आने से पहले का था। अति तीव्र वेग वायु जो शायद एक पतले दुबले आदमी को धकेल कर गिराने के लिए काफी था। आज बड़े अधिकारियों में और मज़दूरों में कुछ ज्यादा फर्क नही दिख रहा था। मुझे यह सोचकर संतुष्टि हो रही थी की शायद इनमें से कुछ-एक लोग तो समझेंगे पर्यावरण की महत्ता को और यह जानेंगे की ये सब उन्ही के कारण हो रहा है । पर्यावरण को असंतुलित करने का सारा श्रेय उनको ही जाता है ।पर शायद ही किसी ने सोचा होगा क्योंकि इतने व्यस्त लोगों के पास समय कहाँ होता है?
चक्रवात के आने का समय था शाम ५ बजे से शाम के ७ बजे तक और अभी सिर्फ ३ ही बजे थे। कुछ देर मैं भी अपनी हित की सोचने लगा। सोचा कितना अच्छा होता कि ये सारे पंखे जो कि ऊँचे ऊँचे इमारतों कि सारी गर्मी को समेट कर हमारे ऊपर आग कि तरह बरसते है । पूरे वातावरण को गर्मी से झुलसा कर अंदर इमारतों में बैठे लोगों को इतना तक ज्ञात नहीं होने देता कि यह गर्मी का मौसम है या सर्दी का। आज मेरा तन और मन इस वृष्टि से तृप्त हो रहा था पर मै वायु के प्रबल वेग से बुरी तरह झंझोरा जा रहा था। मैने सोचा आज अगर मै गिरा भी दिया जाऊँ इस पवन वेग से तो तो यह एक प्राकृतिक मौत होगी इन मनुष्यों के द्वारा झुलस-झुलस कर मरने से तो काफी अच्छा होगा - तृप्त हो मरूँगा
यह चक्रवात निसंदेह प्रकृति के कोप था। मेरे जैसे कई पेड़ गिर रहे थे और साथ में लगी दीवारों को भी गिरा रहे थे। जो लोग भीगने मात्र से डरते थे वो आज भीगने कि चिंता न कर सुरक्षित घर पहुँचने कि कोशिश में लगे थे। अचानक देखा पवन वेग तीव्र हुआ और मेरा शत्रु परास्त होता दिख रहा था। वो पंखे वाला डब्बा खुल कर छज्जे से निचे गिरने वाला था। और देखते देखते गिर भी गया और वह अपने ही पुर्जों में बिखर गया। मेरा खुश होना अपेक्षित था पर मानवों का यह दुर्दिन देख अपनी ख़ुशी को भी मै भूल बैठा और यह विनती करने लगा -"हे इश्वर! इन्हें सदबुध्धि दो। किसी न किसी माध्यम से इन्हें  सचेत करो उस महाप्रालय से जो कि आ सकता है पर्यावरण के असंतुलन से। हे इश्वर! इन्हें सचेत करो"। और इसी चिंतन में मैं खो गया और स्वयम को झंझावात को समर्पित कर परिणाम की चिंता छोड़ प्रार्थना करने लगा इन मतलबी इंसानों के लिए।
जब ध्यान टूटी तो देखा वायु-वेग पहले से तीव्र न हुआ था। क्षति हुई थी तो हमारे जैसे लम्बे खड़े पेडों की, उनसे लगे दीवारों की और कुछ टेलीफोन के खम्भों की और कुछ जीवों की जो मानव न थे और टूटने वाली दीवारों को अपना आश्रय समझ बैठे थे। हमारे आस पास के इलाको में ज्यादा क्षति न हुई थी। पर क्षति तो हमेशा की तरह सबसे ज्यादा हमारी ही जाति को हुई थी। कई पेड़ जड़ से उखड चुके थे। न जाने प्रकृति हमसे ही क्यों प्रतिशोध लेती है ?
सुन्दर वन में यह चक्रवात विनाश कर चुका था - वहां की सुन्दरता को कुचल चुका था। धरती जहाँ समृद्ध थी वहीँ पर विनाश का आमंत्रण था। जहाँ वन्य प्राणी सुरक्षित समझते है खुद को , जहाँ हरियाली हुआ करती है , जहाँ शीतल जल बहता है , जहाँ मनुष्य ने अपना वर्चस्व न जमाया था, उसी जगह को क्यूँ चुना गया विनाश के लिए। न जाने कितने हरे भरे गाँव डूब गये पर यहाँ Saltlake में ज्यादा कुछ बर्बादी न हुई थी। पर वो अग्नि वायु उगलने वाला डिब्बा मेरे सामने न था। खुश तो था पर मुझे नही लगा कि किसी ने सबक ली होगी। हलकी चोट से भला बहरे क्यूँ जागने लगे। जागृति तो प्रलय लाएगा। वृक्ष-हीन, जल-विहीन, उर्जा-हीन, पशु-पंक्षी-विहिन धरती, वृहस्पति कि तरह तपता हुआ वायुमंडल। या फिर पिघलता हुआ हिमालय, उफान मारती नदियाँ और फिर धीरे-धीरे जल मग्न होता भूभाग। पर उस समय जागने वाले न होंगे, न जगाने वाले होंगे, बचाने वाले नहीं बचेंगे या फिर यूँ कहिये कि समय न होगा अपनी गलतियों को सुधारने का। धरती फिर एक बार वीरान होगी, प्राणी-विहीन होगी। "हे प्रभु! कम से कम इन्हें ऐसा भयानक स्वपन तो दिखा"। विकास के उनमाद में सब सो चुके हैं गहरी नींद। यह कैसा विकास है जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है । कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे। कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है । प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है । यह निरंतर गलतियाँ करने वाला मानव जो खुद को बुद्धिजीवी मानता हैं और यह समझता है कि विज्ञान की आर में जो कुछ भी सत्यापित कर सके बस वही सत्य है और बाकि सब झूठ,  हमेशा भूल जाया करता है की उसकी बुद्धि भी सिमित है ।
अगली सुबह जो देखा वो ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि इनसे मेरी अपेक्षा भी यही थी । मैं जानता था कि कल फिर से सिर्फ एक 3 घन फीट का आदमी ( एक सामान्य मनुष्य का आयतन = 6×1×0.5 घन फीट) , 300 घन फीट (एक साधारण कार का आयतन 6×10×5 घन फीट) की गाड़ी में बैठ कर प्रदुषण फैलाएगा, प्रकृति के मुख पर कालीख मलेगा ।  जिम जाकर अपनी उर्जा को जरूर बर्बाद करेगा पर आधे किलोमीटर कि दूरी भी पैदल नहीं तय करेगा क्योंकि गाड़ी है न , बगल कि मंडी  से सब्जी भी गाड़ी में ही लायेगा  । बसें हैं काफी शहर में  फिर भी अपनी गाड़ी में पेट्रोल बर्बाद कर पर्यावरण को चौतरफा नुक्सान करेगा । खुद तो वातानुकूलित कमरे में रहेंगे और गर्म तपती वायु को बहार प्रवाहित करेंगे क्योंकि उनका छोटा सा कमरा उनके लिए सुखदाई हो भले ही बाहर प्राणी जल मरें । उन्हें क्या ?
दलील देंगे अपने पैसों का पेट्रोल जला रहे हैं, बजली के लिए भी पैसे दे रहे हैं , अपने पैसों से A.C. लगा रहे हैं । हुह्ह  ....थू ... कितने नीच हो तुम और तुम्हारी सोंच ।  जिन्हें संवारना नहीं आता उन्हें बिगारते क्यों हो ? और तुम इसी को जीना भी बोलते हो , हाह , हे मुर्ख जरा विस्तृत कर देख यही तेरा विनाश है , प्रलय-आमंत्रण है !
अगले दिन दिनचर्या वही है जो पहले थी । और अचानक दिखा मुझे एक दानवरूपी-मानव या मानवरूपी-दानव जो भी कहिये मेरे लिए वह राक्षस ही था क्योंकि उससे मेरी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हो रही थी । वह  लगा गया एक नया यन्त्र जो फिर से उगलने लगा मुझपर आग । मैं तड़प रहा हूँ आज तक । मैं अडिग हूँ , इस स्थान से हट नहीं सकता , मैं अडिग हूँ अपने प्रण के प्रति जो मैंने लिया है प्राणियों को प्राणवायु देने का, और इसी हट का मुझे दण्ड मिल रहा है । मैं सच कहता हूँ निर्दोष हूँ , पर सुन हे दुष्ट अपराधी मानव -
"तुम न चेते आज यदि तो  -     दुरदिन ऐसा आएगा ,
 धरा तपेगी व्योम तपेगा , तिल-तिल हर इन्सान मरेगा ।" 
       – प्रकाश ‘पंकज’

धरा तपेगी व्योम तपेगा, तिल-तिल हर इन्सान मरेगा - २

कृपया इसका पहला भाग भी पढ़ें ( http://pankaj-writes.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html )

जब ध्यान टूटी तो देखा वायु-वेग पहले से तीव्र न हुआ था | क्षति हुई थी तो हमारे जैसे लम्बे खड़े पेडों की, उनसे लगे दीवारों की और कुछ टेलीफोन के खम्भों की और कुछ जीवों की जो मानव न थे और टूटने वाली दीवारों को अपना आश्रय समझ बैठे थे | हमारे आस पास के इलाको में ज्यादा क्षति न हुई थी | पर क्षति तो हमेशा की तरह सबसे ज्यादा हमारी ही जाति को हुई थी | कई पेड़ जड़ से उखड चुके थे | न जाने प्रकृति हमसे ही क्यों प्रतिशोध लेती है ?

सुन्दर वन में यह चक्रवात विनाश कर चुका था - वहां की सुन्दरता को कुचल चुका था | धरती जहाँ समृद्ध थी वहीँ पर विनाश का आमंत्रण था | जहाँ वन्य प्राणी सुरक्षित समझते है खुद को , जहाँ हरियाली हुआ करती है , जहाँ शीतल जल बहता है, जहाँ मनुष्य ने अपना वर्चस्व न जमाया था, उसी जगह को क्यूँ चुना गया विनाश के लिए | न जाने कितने हरे भरे गाँव डूब गये पर यहाँ Saltlake में ज्यादा कुछ बर्बादी न हुई थी | पर वो अग्नि वायु उगलने वाला डिब्बा मेरे सामने न था | खुश तो था पर मुझे नही लगा कि किसी ने सबक ली होगी | हलकी चोट से भला बहरे क्यूँ जागने लगे | जागृति तो प्रलय लाएगा | वृक्ष-हीन, जल-विहीन, उर्जा-हीन, पशु-पंक्षी-विहिन धरती, वृहस्पति कि तरह तपता हुआ वायुमंडल | या फिर पिघलता हुआ हिमालय, उफान मारती नदियाँ और फिर धीरे-धीरे जल मग्न होता भूभाग | पर उस समय जागने वाले न होंगे, न जगाने वाले होंगे, बचाने वाले नहीं बचेंगे या फिर यूँ कहिये कि समय न होगा अपनी गलतियों को सुधारने का | धरती फिर एक बार वीरान होगी, प्राणी-विहीन होगी | "हे प्रभु! कम से कम इन्हें ऐसा भयानक स्वपन तो दिखा" | विकास के उनमाद में सब सो चुके हैं गहरी नींद | यह कैसा विकास है जो विनाश को आमंत्रित कर रहा है | कैसी है यह जागृति जब आँखें मूँद सब चल रहे | कैसी है यह शिक्षा जो विनाश को प्रेरित करती है । प्रकृति के साथ मानव का कैसा यह संघर्ष है । यह निरंतर गलतियाँ करने वाला मानव जो खुद को बुद्धिजीवी मानता हैं और यह समझता है कि विज्ञान की आर में जो कुछ भी सत्यापित कर सके बस वही सत्य है और बाकि सब झूठ,  हमेशा भूल जाया करता है की उसकी बुद्धि भी सिमित है ।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

वन्दे मातरम रिंग-टोन - आनंद मठ


http://www.esnips.com/doc/f858febb-6134-444f-b102-d21b8a9f2050/Vande-Mataram-Ringtone

नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम....... वन्दे मातरम !